________________
३४०
खण्डहरोंका वैभव
समुद्रगुप्त दक्षिण-कोसलमें दिग्विजयार्थ आये, तब उन्हें एरणका स्थान बहुत ही पसन्द आया। उन्होंने वहाँ विशाल नगर एवं विष्णु-मंदिर बनवाये । शिलालेखमें इसे स्वभोगनगर कहा गया है। इस समयसे कुछ पूर्वका एक काष्ठ-स्तम्भ-लेख बिलासपुर जिलेके किराड़ी नामक गाँवसे प्राप्त हुआ है, जो तत्कालीन मध्य-प्रान्तीय शासन-प्रणालीपर मार्मिक प्रकाश डालता है। इसमें पुलपुत्रक गृहनिर्माणिक (गृह बनानेवाला)-का उल्लेख है, जिससे स्पष्ट है कि उस समय प्रान्त तक्षण-कलामें कितना उन्नत था, इसके लिए कि एक स्वतन्त्र पदाधिकारी रखना पड़ता था। गुप्त कालमें शिल्प-कला अपना संपूर्ण रूप लेकर न केवल पाषाणपर ही अवतरित हुई, बल्कि एतद्विषयक साहित्यिक ग्रन्थोंके रूप में भी दिखाई दी। मानसार जो समस्त शिल्पशास्त्रोंमें अनुपम है, इसी कालको रचना मानी जाती है । तिगवाँ जिला जबलपुर ग्राममें एक गुप्तकालीन मन्दिर अद्यावधि विद्यमान है, जिसके विषयमें प्रान्तके बहुत बड़े अन्वेषक डा० हीरालालने लिखा है-"यह प्रायः डेढ़ हजार वर्षका है। यह चपटी छतवाला पत्थर का मन्दिर है । इसके गर्भगृहमें नृसिंहकी मूर्ति रखी हुई है। दरवाज़ेमें चौखटके ऊपर गंगा और यमुनाकी मूर्तियाँ खुदी हैं। पहले ये ऊपर बनाई जाती थीं, किन्तु पीछेसे देहरीके निकट बनवाई जाने लगीं। मन्दिर के मण्डपकी दीवारमें दशभुजी चण्डीकी मूर्ति खुदी है। उसके नीचे शेषशायी भगवान् विष्णुका चित्र खुदा है, जिनकी नाभिसे निकले हुए कमलपर ब्रह्माजी विराजमान हैं।"
तिगवाँके मन्दिर में गंगाको मूर्ति बहुत ही सुन्दर और कलापूर्ण है । उनका शारीरिक गठन, अंग-विन्यास, उत्फुल्ल वदन एवं तात्कालिक केशविन्यास किस कलाप्रेमीको आकृष्ट नहीं करेंगे ? यहाँसे कुछ दूर भोपाल रियासतमें भी कुछ गुप्तकालीन मन्दिर हैं, जहाँका कृष्ण-जन्म-प्रदर्शनका
स्व० हीरालाल, जबलपुर-ज्योति, पृ० १४० ।
Aho ! Shrutgyanam