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मध्यप्रदेशका बौद्ध- पुरातत्व
बनाई जाती थीं । बीचको सीमाओं में गोलाकार लघु- बिन्दु खोदे जाते थे । तोसरी अर्थात् सबसे भीतरी परिधि में कभी सादा खुदाव रहता था, और कभी बेलबूटेदार | प्रतिमाके ठीक सिरके ऊपर एक व्याल ( मंगलमुख ) की मूर्ति रहती थी । अन्तिम गुप्तकालमें प्रभावलीकी तीन सीमाएँ तो रहती थीं किन्तु उनमें कुछ सामयिक परिवर्तन हो गये थे । सबसे बाहिरी परिधि में आग की लपटें इतनी सफाई से नहीं बनती थीं । इन लपटोंकी जो क्षीण रेखाएँ बारीकी से स्पष्ट बनाई जाती थीं, वे अब नहीं- अर्थात् लपटें अन सीधी ऊपर की ओर उठती हुई ही रह गई थीं । बीचकी सीमाओं में गोलाकार लघुबिन्दु ज्यों-के-त्यों रहे, किन्तु असल परिवर्तन हुआ तीसरी परिधि के खुदा में | इसमें अब तत्कालीन युगमें सामयिक अलंकरण खोदे जाते थे । शिरोभागके ठीक ऊपर मंगलमुख भी ज़रा भद्दा-सा बनाया जाता था । स्पष्टतः यह परिवर्तन ह्रासोन्मुखी था ।
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गुप्तोत्तर काल में ३ सीमाएँ रहीं । ध्यान देनेकी बात है कि जो ह्रास अंतिम गुप्तकाल में दिख पड़ा, उसकी गति अब और भी तीव्र हो उठी थी । लपटें मोटी और भद्दी रेखाएँ मात्र रह गई थीं । बिन्दुओं में गुलाई मात्र रह गयी थीं । बेल-बूटों एवं अलंकरणोंके स्थानपर कमलकी पंखुड़ियाँ पर्याप्त समझी जाने लगीं । इस कालतक गुप्तकालीन शिल्प-परम्परा के कुछ तक्षक बच गये थे, जैसा कि सिरपुरकी बौद्ध मूर्तियोंसे ज्ञात होता है ।
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उपर्युक्त विवेचनसे सिद्ध है कि प्रस्तुत प्रतिमाका निर्माण गुप्त सत्ताको समाप्ति के काफी बाद हुआ । कलचुरि वंशके प्रारंभिक कालमें इसकी रचना होना स्वाभाविक जान पड़ता है, कारण कि इन दिनों सिरपुरके तक्षक बौद्ध-मूर्ति विधानकी परम्परासे पूर्णतः परिचित ही न थे, स्वयं मूर्तियाँ बनाते भी थे । अतः निर्माण-काल १० वीं शती के बादका तो हो ही नहीं सकता । मूर्ति के परिकर में खुदे हुए स्तम्भ इसकी साक्षी स्वरूप विद्यमान हैं । उपर्युक्त पंक्तियोंसे तो यह सिद्ध हो ही गया है कि महाराज अशोक के बाद तेरह सौ वर्षोंतक मध्यप्रदेशके किसी न किसी भाग में, किसी सोमातक
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