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मध्यप्रदेशका बौद्ध- पुरातत्त्व
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हो रहे हैं, दाहिना हाथ नीचे की ओर करतल सम्मुख बताया है । बायें हाथमें संघाटी हैं । दायीं ओर दो शिष्य हाथ जोड़े हुए हैं। बायीं ओर एक व्यक्ति खड़ा है, पर उसका मस्तक नहीं है । उसका बायाँ हाथ उदरको स्पर्श कर रहा है— चंवरको धारण किये हुए हैं । बायीं ओर भी चार उपविभाग हैं । प्रथम मूर्ति में गौतमके चरणों में हाथी नत मस्तक है । स्पष्ट है, राजगृहमें बुद्धदेवके द्वेषी देवदत्तने नालागिरि नामक हस्तीको बुद्धदेवपर छोड़ा था । किन्तु बुद्धकी तेजपूर्ण मुखाकृति एवं अद्भुत सौम्य मुद्रा प्रभाव से परास्त होकर, हाथी क्रूर परिणामको छोड़कर उनके चरणों में नतमस्तक हो गया । बाजूमें दायीं ओर आनन्द खड़े हैं । सचमुच में कला - कारने इस घटनाको उपस्थित करने में गज़ब किया है । उठते हुए हाथीका पृष्ठांक फूल सा गया है । बुद्धदेवकी मुद्रामें तनिक भी परिवर्तनके भाव नहीं आये-आते भी कैसे । दूसरी घटना धर्मचक्र प्रवर्तन से संबंध रखती है' । बुद्धदेव पलथी मारकर आसनपर विराजमान हैं । करोंकी भावभंगिमा से तो ऐसा प्रतीत होता है, मानो वक्ता गहन और दार्शनिक युक्तियोंको समझ रहा हो, परन्तु बात वैसी नहीं है । दोनों हाथ वक्षस्थलके सम्मुख अवस्थित हैं । दायें करका अंगूठा और कनिष्ठिका बायें हाथ की मध्यमिकाको स्पर्श करती हुई बताई है। इसी भावसे बुद्धदेवने सारनाथ के कौण्डिन्य आदि पंचभद्र-वर्गीयको बौद्ध धर्म में दीक्षित किया था । आसनके दोनों ओर मैत्रेय और अवलोकितेश्वरकी मूर्तियाँ हैं। तीसरी घटना बानरेन्द्रके मधुदानसे गुंथी हुई है। कौशाम्बीके निकट पारिलियक वनमें वानरेन्द्र द्वारा बुद्धको मधुदान दिये जानेके उल्लेख बौद्ध साहित्य में मिलते हैं । इसी भावको यहाँ प्रदर्शित किया गया है, बुद्धदेव हाथ पसारे बैठे हैं । वानरेन्द्र पात्र लिये खड़ा है, चौथी प्रतिमा पद्मासन ध्यान में है । अनजानको जैन प्रतिमा होने का
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१ कुछ वर्ष पूर्व त्रिपुर में धर्मचक्र प्रवर्तन-मुद्राकी स्वतंत्र और विशाल प्रतिमा प्राप्त हुई थी, जो कलाकी दृष्टिसे बहुत ही महत्त्वपूर्ण थी ।
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