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मध्यप्रदेशका बौद्ध- पुरातत्त्व
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करकी रचनाशैली विशुद्ध गुप्तकालीन है । इसके कलाकारकी व्यापक चिन्तन और निर्माण शक्तिका गंभीर परिचय, उसके एक-एक अंगसे भलीभाँति मिलता है | परिकर के निम्न भागमें कमलकी शाखाएँ, पुष्प और पत्र बिखरे पड़े हैं - ऐसा लगता है कि इन कमलकी शाखाओं पर ही मूर्ति आधृत है । कमलपत्र पर दाईं ओर जाँघिया पहने एक भक्त हाथ जोड़कर नमस्कार कर रहा है । उसके पीछे और सामनेवाले भागमें जाँघिया पहने एक व्यक्ति है, हाथोंमें पूजोपकरण है । इनके मस्तकोंपर सर्पकी तीन-तीन फनें हैं । जहाँ भक्त अधिष्ठित है, वहाँ एक चौकी सदृश भागपर जलयुक्त कलश, धूपदान और पंचदीपवाली आरती पड़ी हुई हैं। मुझे तो ऐसा लगता है मानो परिकरमें पूरे मंदिरकी कल्पनाको रूप दे दिया गया है । इस ढंगकी परिकरशैली अन्यत्र कम ही विकसित हुई होगी। पूजोपकरण के ऊपर एक उच्च स्थानपर दो सिंह हैं, तदुपरि एक रूमालका छोर लटक रहा है । इसके ऊपर घंटाकृति समान कमलासन है । कमलके इस आकारका
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अंकन बड़ा सफल हुआ है । कमलके अमुक समय बाद फल भी लगते हैं, जो कमलगट्टे के रूपमें बाजार में बिकते हैं । तारा देवीका आसन भी कमलके फल लगनेवाले भागपर है । कारण कि उसके आसन के नीचे गोल-गोल बिन्दू काफ़ी तादाद में हैं। कोर भी इससे बच नहीं पाई, जैसा कि चित्रसे स्पष्ट है | मुख्य आसनके दोनों ओर बैठे हुए हाथी, उनके गंडस्थलपर पंजे जमाये हुए, सिंह खड़े हैं । इनकी केशावली भी कम आकर्षक नहीं । मुख्य मूर्ति के पीछे जो कोरणीयुक्त दो स्तम्भ हैं वे गुप्तकालीन हैं । मध्यवर्ती पट्टी -- जो दोनोंको जोड़ती है, विविध जातिकी कलापूर्ण रेखाओंसे विभूषित है । पट्टिकाके निम्न भागमें मुक्ताकी मालाएँ, बंदरवार के
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"इन बिन्दुभवाला आसन गुप्तकालीन है। प्रयाग संग्रहालय में चंद्रप्रभ स्वामीकी मूर्तिके आसन में ऐसा ही रूप प्रदर्शित है ।
-- महावीर - स्तुति ग्रन्थ, पृ० १६२ ।
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