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मध्यप्रदेशका बौद्ध-पुरातत्त्व है । पर जिन दिनोंकी चर्चा ऊपर की गई है, तबका सिरपुर सापेक्षतः अधिक बड़ा था । आज भी इधर-उधर के खंडहर इस बातकी साक्षी दे रहे हैं । तुरतुरिया, यद्यपि आज सिर पुरसे १५ मील दूर अवस्थित है । भयंकर जंगल है। एक समय यह सिरपुरके अन्तर्गत समझा जाता था । वहाँपर भी पुरातन खंडहर और अवशेषोंका प्राचुर्य है। बौद्ध-संस्कृतिसे सम्बन्धित कलाकृतियाँ भी हैं। किसी समय यहाँ बौद्ध भिक्षुणियोंका निवास था । भगवान् बुद्धदेवकी विशाल और भव्य प्रतिमा आज भी सुरक्षित हैं। लोग इसे वाल्मीकि ऋषि मानकर पूजते हैं। पूर्वकाल भिक्षुणियोंका निवास होने के कारण, पच्चीस वर्ष पूर्व यहाँको पुजारिन भी नारी ही थीं। तुरतुरिया, खमतराई, गिधपुरी और खालसा तक सिरपुरकी सीमा थी। यदि संभावित स्थानोंपर खुदाई करवाई जाय, और सीमा-स्थानोंमें फैली हुई कलाकृतियोंको एकत्र किया जाय, तो श्रीपुर-सिरपुरमें विकसित तक्षण कलाके इतिहासपर अभूत-पूर्व प्रकाश पड़ सकता है। मेरा तो मत है कि खुदाई में और भी बौद्ध कला-कृतियाँ निकल सकती हैं, और इन शिल्पकलाके अवशेषों के गम्भीर अध्ययनसे ही पता लगाया जा सकता है कि सोमवंशीय पाटनगर परिवर्तनके बाद कितने वर्षतक बौद्ध बने रहे । इतने लम्बे विवेचनके बाद इतना तो कहा ही जा सकता है कि भद्रावतीसे श्रीपुर आते ही, उन्होंने शैव-धर्म अंगीकार नहीं किया था। या भद्रावतीमें ही शैव नहीं हुए थे, जैसा कि डा० हीरालाल सा० मानते हैं । इसकी पुष्टि ये अवशेष तो करते ही हैं, साथ ही साथ १२०० सौ वर्षका प्राचीन भवदेव रणकेशरीका लेख भी इसके समर्थन में रखा जा सकता है।
'ब्रह्मचारी नमोबुद्धो जीर्णमेतत् तदाश्रयात् । ... पुनर्नवत्वमनयद् बोधिसत्वसमाकृतिः॥३५॥ ज० रा० ए० सो०१६०५,
मगधके बौद्ध राजाओंके साथ यहाँका न केवल मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध ही था, अपितु राष्ट्रकूटोंकी कन्याएँ भी बिहार गई थीं।
पृथ्वीसिंह म्हेता-"बिहार, एक ऐतिहासिक दिग्दर्शन ।"
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