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खण्डहरोंका वैभव समान हैं। दोनों स्तम्भोंके बीच बोधिवृक्षकी पत्तियाँ हैं। यह तोरण साँचीके तोरणद्वारकी अविकल प्रतिकृति है। तोरणके ऊपर मध्य भागमें भगवान् बुद्धदेव ध्यानमुद्रामें हैं। पीछेके भागमें गोल तकिया दिखलाई पड़ता है। भामंडल विशुद्धगुप्तकालीन है। ऊपर मंगलमुख है । आजूबाजू वज्रयानकी मूर्तियाँ हैं। । इस प्रतिमाको देखकर भारतके कलामर्मज्ञ श्री अर्द्वन्दुकुमार गांगुली, शिवराममूर्ति, मुनि जिनविजयजी, आदि कलाप्रेमियोंने इसका निर्माण काल अन्तिम गुप्तयुग स्थिर किया है। इस युगकी मूर्तिकलाकी जो-जो विशेषताएँ हैं, वे प्रासंगिक वर्णनके साथ ऊपर आ चुकी हैं। ___ डा० हजारीप्रसादजीके मतसे यह वज्रयानकी तारा है।
तारादेवीके अतिरिक्त जो धातुमूर्तियाँ सिरपुर में विद्यमान हैं, उनका अस्तित्व समय भी अन्तिम गुप्तकाल ही माना जाना चाहिए। छींटके वस्त्रका सर्वप्रथम पता हमें अजंटाके चित्रोंसे लगता है। मूर्तिकलामें भी उसी समय इसका व्यवहार होने लगा था। धातुमूर्तियोंपर अजंटाकी रेखाओंका भी काफ़ी प्रभाव है । अंग-विन्यास, शरीरका गठन, आँखोंकी मादकता, वस्त्रों और आभूषणोंका सुरुचिपूर्ण चयन, उपर्युक्त प्रतिमाओंकी विशेषता है । स्वर्णाशके साथ रत्नोंका भी बाहुल्य है । अतः शासकद्वारा निर्मित होना अधिक युक्तिसंगत जान पड़ता है। असंभव नहीं यह पूरा सेट सोमवंशी राजाओंने ही अपने लिए बनवाया हो। तुरतुरिया__ ऊपरमें लिख ही चुका हूँ कि सिरपुर भयंकर अटवीमें अवस्थित है। आजके सिरपुरकी सीमा तो बहुत ही संकुचित है। जनसंख्या भी नगण्य-सी । यहाँ एक पानीका झरना है, जिसमें पानी 'सुर सुर' या 'तुर तुर' करता है । इसलिए इस स्थानका नाम तुरतुरिया पड़ गया।
श्री गोकुलप्रसाद, रायपुर-रश्मि, पृ०६७ ।
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