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खण्डहरोंका वैभव त्रिपुरीकी बौद्ध-मूर्तियाँ
त्रिपुरीका ऐतिहासिक महत्त्व सर्वविदित है । कलिचुरि-शिल्पका त्रिपुरी बहुत बड़ा केन्द्र रहा है। ईसवी नवीं शताब्दीमें कोकल्लने त्रिपुरीमें स्वभुजाबलसे अपना शासन स्थापित किया। मध्यप्रदेश के इतिहासमें कलचुरि राज्य-वंश महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है । संस्कृति और सभ्यताका विकास इसके समयमें पर्याप्त हुआ था। उच्चकोटिके कवि व विभिन्न प्रान्तीय बहुश्रुत-विज्ञ-पुरुष वहाँकी राज्य सभामें समाहत होते थे। शासक स्वयं विद्या व शिल्पके परम उन्नायक थे । वे धर्मसे शैव होते हुए भी, गुप्तोंके समान, परमत सहिष्णु थे। कलचुरि शासन-कालमें, महाकोसलमें बौद्ध धर्मका रूप कैसा था, इसे जानने के अकाट्य साधन अनुपलब्ध हैं, न समसामयिक साहित्य व शिला-लिपियोंसे ही आंशिक संकेत मिलता है, परन्तु तात्कालिक बिहार प्रान्तका इतिहास कुछ मार्ग दर्शन कराता है। बिहार के पालवंशी राजाओंका कलचुरियोंके साथ मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध था, वे बौद्ध थे । अतः कलचुरि इनके प्रभावसे सर्वथा वंचित रहे हों, यह तो असंभव ही है । प्रसंगतः मैं उपर्युक्त पंक्तियोंमें सूचित कर चुका हूँ कि सिरपुरके सोमवंशके कारण महाकोसलमें बौद्धधर्मकी पर्याप्त उन्नति रही; पर अधिक समय वह बौद्ध न रह सका । शैव हो गया। ऐसी स्थितिमें समझना कठिन नहीं है कि भले ही राज्य-वंशसे बौद्ध धर्मका, किसी भी कारण विशेषसे, निष्कासन हो गया, पर जनतामें पूर्व धर्मकी परम्पराका लोप, एकाएक संभव नहीं, कारण कि महाकोसलमें प्राप्त बौद्ध-मूर्तियाँ उपर्युक्त पंक्तियोंकी सार्थकता सिद्ध करती हैं, एवं बौद्धमुद्रा लेख जैन व वैदिक अवशेषोंपर भी पाया जाता है, यह बौद्ध संस्कृतिका अवशेषात्मक प्रभाव है।
त्रिपुरीमें यों तो समयपर कई बौद्ध मूर्तियाँ खुदाई में प्राप्त होती ही रही हैं; परन्तु साथ ही त्रिपुरीका यह दुर्भाग्य भी रहा है कि वहाँ निकली हुई संपत्तिको समुचित संरक्षण न मिल सकने के कारण, मनचले लोगोंने व
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