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खण्डहरोंका वैभव चमकीले नक्षत्र थे । दर्शनशास्त्र एवं आयुर्वेदमें इनकी अबाधगति थी। भारतीय आयुर्वेद-शास्त्रमें रस द्वारा चिकित्सा करनेकी पद्धतिका सूत्रपात, इन्हींके गंभीर अन्वेषणका परिणाम है । पं० जयचन्द्र विद्यालंकारने अश्वघोषके 'हर्षचरित'के आधारपर लिखा है कि नागार्जुन दक्षिण-कोसल (छत्तीसगढ़) के राजा सातवाहनके मित्र थे । चीनी पर्यटक श्युआन चुआङ्ने भी आयुर्वेदमें पारंगत बोधिसत्त्व नागार्जुनका बहुमान पूर्वक स्मरण किया है | बाण कवि भी इसका समर्थन करते हैं । इसलिए इनका काल ईस्वीकी दूसरी शताब्दीसे पीछे नहीं जा सकता । यहाँपर प्रश्न यह उपस्थित होता है कि नागार्जुन और सिद्धनागार्जुन एक ही थे या पृथक् ? पं० जयचन्द्र विद्यालंकारने दोनोंको एक ही माना है । जैन साहित्यमें सिद्ध नागार्जुनका वर्णन विशद रूपमें आया है । मूलतः वे सौराष्ट्रान्तर्गत ढंकगिरिके निवासी व आचार्य पादलिप्तसूरिके शिष्य थे । इनकी भी आयुर्वेद एवं वनस्पति शास्त्रमें अद्भुत गति थी। रससिद्धिके लिए इन्होंने बड़ा परिश्रम किया था । सातवाहन इनको सम्मानकी दृष्टिसे देखता था; पर यह सातवाहन छत्तीसगढ़का न होकर, प्रतिष्ठानपुर-पैठन (नाशिकके समीप) का था। दोनों नागार्जुनके जीवनकी विशिष्ट घटनाओंको गंभीरतापूर्वक देखें तो आंशिक साम्य परिलक्षित होता है। तन्त्रविषयक योगरत्नमाला और साधनामाला वगैरह कुछ ग्रन्थों में पर्याप्त भाव-साम्य है; पर जहाँतक भाषाका प्रश्न है, इन ग्रन्थोंके रचयिता नागार्जुन ही जान पड़ते हैं; क्योंकि सिद्धनागार्जुनके समय जैन संप्रदायमें अपने भावको संस्कृत भाषामें व्यक्त करनेकी प्रणाली ही नहीं थी। मेरे जेष्ठगुरु-बन्धु मुनि श्री मंगलसागरजी महाराज साहबके ग्रन्थ संग्रहमें नागार्जुन कल्प नामक एक हस्त लिखित प्रति है, उसमें भारतीय रस-चिकित्सा एवं अनेक प्रकारके महत्त्वपूर्ण व आश्चर्यजनक रासायनिक प्रयोगोंका संकलन है। इसकी भाषा प्राकृत मिश्रित अपभ्रंश है । यह कृति
भारतीय वाङ्मयके अमररत्न ।
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