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खण्डहरीका वैभव
बौद्धपरम्पराके इतिहाससे स्पष्ट है कि जहाँ कहीं भी बौद्ध धर्म फैला, वहाँ देशकालकी परिस्थितिके अनुसार, उसकी तान्त्रिक परम्परा भी क्रमशः फैली । ऐसी स्थितिमें महाकोसल इसका अपवाद नहीं हो सकता । यद्यपि अद्यावधि यह निर्णीत नहीं किया जा सका है कि महाकोसल में भी बौद्धोंकी तान्त्रिक परम्परा सार्वत्रिक प्रसिद्धि प्राप्त कर चुकी थी, न अधिक बौद्ध साहित्यिकोंने ही इसपर प्रकाश डाला है, किन्तु समसामयिक साहित्यके तलस्पर्शी अध्ययन व अन्वेषित कलाकृतियों के आधारपर, बिना किसी संकोचके कहा जा सकता है कि महाकोसल में भी किसी समय न केवल बौद्ध-मान्य तन्त्र-परम्परा ही प्रचलित थी, अपितु उनके बड़े-बड़े साधना-स्थान भी बन चुके थे, वह इस प्रकार जनजीवनमें घुल-मिल गई थी कि बड़े-बड़े कवियों और दार्शनिकों तकको इस धारापर प्रतिबन्ध लगानेकी आवश्यकता प्रतीत हुई थी । भारतीय तान्त्रिक परम्पराका अन्वेषण मुझे यहाँ नहीं करना है, मुझे तो केवल महाकोसलमें विकासेत तान्त्रिक परम्पराके प्रचारमें बौद्धोंका दान कितना है ? यही देखना है।
महाकोसलका सांस्कृतिक अन्वेषण तबतक अपूर्ण रहेगा जबतक भवभूतिके साहित्यका भलीभाँति अध्ययन नहीं हो जाता। कभी कमी एक साधारण घटना भी, घटना विशेषके साथ संबंध निकल आनेपर, इतिहासकी उलझी हुई समस्या, सरलतापूर्वक सुलझा देती है। भवभूति, बौद्धोंके तान्त्रिक परम्पराके विकासका पूरा इतिहास उपस्थित कर देते हैं । सोमवंशी नरेश भाण्डकमें रहे तबतक बौद्ध थे। सिरपुर आनेके कुछ समय पश्चात् शैव हुए; जब महाकोसलमें इन्होंने अपनी राजधानी परिवर्तित की, उस समय वे तान्त्रिक परम्परा भी साथ लाये । भद्रावतीमें सौसे अधिक संघारामोंकी चर्चा श्यूआन-चुआङने अपने भ्रमण-वृत्तांतमें की है । सिरपुरके समीप तुरतुरियामें भी बौद्ध भिक्षुणियोंका स्वतन्त्र मठ स्थापित किया गया था। ये विहार तन्त्र-परम्पराशून्य नहीं थे । अस्तु ।
Aho! Shrutgyanam