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खण्डहरोंका वैभव
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से प्रतीत होता है । वे अपने निवासग्राम, गिधपुरी ( जो सिरपुर से २॥ कोस दूर है ) ले गये । दैवसंयोगसे वहाँ उसी रातको भयंकर अग्निप्रकोप हुआ । परिवार के सदस्योंका स्वास्थ्य भी विकृत हो गया । भयभीत होकर दूसरे दिन ये मूर्तियाँ पुनः सिरपुर लाई गई । दाऊ साहब ने अपने मालगुज़ारी बाड़े रखवा दीं। कभी-कभी भयके कारण इनपर पानी भी ढाल दिया जाता था और कभी धूप भी बता दिया जाता था । दाऊ साहब, यों तो इस सम्पत्तिके दर्शन हर एकको नहीं कराते हैं, शायद इसीलिए विज्ञजनों की दृष्टिसे अभीतक यह वंचित रहीं, मुझे तो उन्होंने उदारतापूर्वक न केवल दर्शन ही कराये अपितु आवश्यक नोट्स लेने के लिए भी तीस मिनट का समय दिया था । यह घटना १६ सितम्बर १९४५ की है । मुझे बताया गया कि मूर्तियाँ बोरेमेंसे मिलीं। इसमें सत्यांश कम
क्योंकि कुछ मूर्तियोंपर मिट्टीका जमाव व कटाव ऐसा लग गया हैं कि शताब्दियों तक भू-गर्भ में रहनेका आभास मिलता है, जब कि बोरा इतने दिनोंतक भूमिमें रह ही नहीं सकता । संभव है किसी बड़े बर्तनों में ये मूर्तियाँ निकली हों, क्योंकि कभी-कभी बर्तन व सिक्के, वर्षाकालके बाद साधारण खुदाई करनेपर निकल पड़ते हैं ।
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महाकोसलकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमिको देखते हुए इन मूर्तियोंका निर्माणकाल सरलतासे स्थिर किया जा सकता है । इनपर खुदी हुई लिपियोंसे भी मार्गदर्शन मिल सकता है । सातवीं शताब्दीके बाद भद्रावती के सोमवंशियोंने अपना पाटनगर सिरपुर स्थापित किया । निस्सन्देह वे उस समय बौद्ध थे, जैसा कि उपर्युक्त प्रासंगिक विवेचन व इन मूर्तियोंसे स्पष्ट हो चुका है। मूर्तियों पर खुदी हुई लिपियाँ सोमवंश-कालीन लेखोंसे साम्य रखती हैं । मूर्तिकला बहुत कुछ अंशों में गुप्तकलाका अनुधावन करती है, बल्कि स्पष्ट शब्दोंमें कहा जाय, तो गुप्तकालीन मूर्तिकला में व्यवहृत कलात्मक उपकरण व रेखांकनोंको स्थानीय कलाकरोंने पूर्णतः अपना
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