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मध्यप्रदेशका बौद्ध- पुरातत्व
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प्रदेश स्थित पुरातन बौद्धावशेष व एक शिलोत्कीर्ण' लेखसे सिद्ध होता है बौद्धधर्मका मुद्रालेख तत्कालीन वैदिक व जैन प्रतिमाओं में भी पाया जाता है, जो बौद्धोंके व्यापक प्रचार के उदाहरण हैं । इस कल्पनाके पीछे ऐतिहासिक तथ्य है, वह यह कि आठवीं शताब्दी बादकी यहाँपर अनेक बौद्ध प्रतिमाएँ पाई गई हैं। उनमेंसे जो गन्धेश्वर मंदिरस्थ प्रस्तर मूर्तियाँ हैं, उनकी रचनाशैली महाकोसलीय मूर्तिकला के प्रतीक-सम होती हुई भी, परिकरान्तर्गत प्रभावली पर गुप्तकालीन लेखनोंका स्पष्ट प्रभाव है । धातु- मूर्तियाँ भी उपर्युक्त प्रभाव से अछूती नहीं हैं । उभय प्रकारकी कतिपय प्रतिमाओं पर ये धम्मा हेतु भवा और देय धम्मोऽयम् बौद्ध मुद्रालेख उत्कीर्णित हैं । इनकी लिपि अष्टम शतीके बादकी है। ऐसे ही लेखोंको देखकर शायद start format ने लिखा है कि अशोक के समय के लगभग एक सहस्र वर्ष पीछे की मूर्तियाँ भेड़ाघाट और त्रिपुरा में पाई जाती हैं। पर डाक्टर साहबका यह कथन भी सर्वांशतः सत्य नहीं ठहरता, कारण कि त्रिपुरी में अवलोकितेश्वर और भूमि- स्पर्श मुद्रास्थित बुद्धदेव की, जो मूर्तियाँ मुझे उपलब्ध हुई हैं, वे कलचुरि कालीन मध्यकालकी सुन्दरतम कृतियाँ हैं । अर्थात् इनका रचनाकाल ११ वीं शती बादका नहीं हो सकता । अवलोकितेश्वरकी अग्रपट्टिकापर जो लेख उत्कीर्णित है, उसकी लिपि महाराजा धंगके ताम्रपत्रों से पर्याप्त साम्य रखती है । निष्कर्ष कि भले ही साहित्यिक प्रमाणोंसे प्रमाणित न हो कि बौद्ध धर्मका अस्तित्व महाकोसल में ११ वीं शतीतक था, परन्तु पुरातत्त्व के प्रकाशसे तो यह मानना ही पड़ेगा कि ११वीं शतीके मध्य भागतक न केवल महाकोसल में ही अपितु, तत्समीपस्थ विन्ध्यप्रदेशमें भी आंशिक रूप से बौद्ध संस्कृति जीवित थी, जिसके प्रमाणस्वरूप चन्देलकालीन अवलोकितेश्वरकी प्रतिमाको रखा जा सकता है। I
'जर्नल आफ दि रायल एशियाटिक सोसायटी १६०५ पृ० ६२४-२६| २ मध्यप्रदेशका इतिहास पृ० १२ ।
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