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मध्यप्रदेशका बौद्ध-पुरातत्व
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पानी से जमीन धुल जाने से गढ़े गढ़ाये पत्थर निकल पड़ते हैं । कृषिजीवी अपने खेतों में कूप या बाड़ के लिए मिट्टी खोदते हैं, तो जैन और बौद्ध मूर्तियाँ तथा तत्संबंधी अवशेष मिल जाते हैं, कारण कि भद्रावतीमें चारों ओर छोटेबड़े बहुसंख्यक अवशेष टीले हैं। कुछ ऐसे भी हैं जिनके ऊपर मकान के चिह्न परिलक्षित होते हैं । यहाँपर प्रासंगिक रूपसे एक बात के उल्लेखका लोभ संवरण नहीं किया जा सकता । वह यह कि वर्तमान जिन-मन्दिर के पश्चात् भागमें सरोवर तीरपर एक टीलेमें एक दर्जन से अधिक बौद्ध मूर्तियाँ, जिनमें अवलोकितेश्वर एवं वज्रयानकी तारा भी सम्मिलित है— अधगढ़ी, १६३६ में, मैंने देखी थी । इनमें से कुछेकपर "ये धम्मा हेतु पभवा" बौद्ध धर्मका मुद्रालेख खुदा हुआ था । इनकी लिपि दसवीं शती के महाकोसलीय ताम्रपत्र एवं शिलोत्कीर्णित लेखोंसे मिलती-जुलती है । इन अवशेषों में से मुझे १० इंच लंबी स्फटिक रत्नकी तारादेवीकी एक तान्त्रिक प्रतिमा भी प्राप्त हुई थी। इसपर भी लेख खुदा हुआ है जो विशुद्ध देवनागरीका प्रतीक जान पड़ता था । यहाँपर सैकड़ोंकी संख्या में बौद्धावशेष तो उपलब्ध होते ही हैं, परन्तु भद्रावतीके चारों ओर २० मीलतक अवशेष बिखरे पड़े हैं । बरोराकी नगरपालिका सभा द्वारा संरक्षित उद्यानमें भी बौद्ध मूर्तिकला के प्रतीक सजाकर रखे गये हैं । इनकी समुचित व्यवस्थाका क़तई प्रबन्ध नहीं है । एक शिल्प- जो भगवान् बुद्धकी घोर वैराग्य दशाका सूचक है, बड़ा ही सुन्दर और कलापूर्ण है । बरोरा और भद्रावतीके बीच एक ग्राममें मुझे ठहरनेका अवकाश मिला था । नाम तो विस्मृत हो गया है । वहाँ के ग्रामीणोंने कई बौद्ध मूर्तियोंसे एक चबूतरा बना डाला है । ३ दर्जन से अधिक मूर्तियाँ चबूतरेपर भी रखी भी हैं, जिनको लोग "खाँड़ा देव" करके मानते हैं, वस्तुतः वे भूमिस्पर्श-मुद्रास्थ बुद्धदेव ही हैं। मेरा विश्वास है कि उपरिसूचित भू-भागका अन्वेषण करनेपर भद्रावती में इतिहास के साधन मिल सकते हैं ।
बालापुर तालुके में पातुरके समीप पहाड़ीपर जो गुफाएँ उत्कीर्णित हैं,
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