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मध्यप्रदेशका बौद्ध-पुरातत्व ढिलवाबुद्धकी मूर्ति बनी हैं। ये आकृतियाँ सारीपुत्त और मोग्गलायनकी होनी चाहिए। पृष्ठभागमें जो स्तम्भाकृति है, वह साँचीके तोरणद्वारके अनुरूप है। तोरणकी मध्यवर्ती पट्टिकाके पीछे दो पंक्तियोंमें
ये धर्मा हेतुप्रभवा हेतुं तेषां तथागतोऽवदत्त अवद : ये निरोधो एवं वादी महाश्रमण:
देय धम्मोऽयम् मुद्रालेख उत्कीर्णित है। मूर्तिका मुख-मण्डल न केवल नेत्रानन्दका ही विषय है, अपितु उसकी नैसर्गिक सौन्दर्य-आमा हृत्तन्त्रीके तारोंको झंकृत् कर, आत्मस्थ सौन्दर्य उद्बुद्ध करती है। भगवान्के दैविक तथा आध्यात्मिक भावोंको लेकर कलाकारने इसका निर्णय किया है ।
एक अन्य प्रतिमा, जो कमलपर विराजमान है । यह भी ऊपरवाली मूर्तिके समान ही भावसूचक है, पर इसमें व्यक्ति प्रधान न होकर सौन्दर्य प्रधान है। इसके अंग-प्रत्यंगपर कलाकारकी सफल साधना उद्दीपित हो उठी है। एक प्रतिमा तारादेवीकी भी है। इसमें वस्त्र-विन्यास एवं आभूषणोंका चयन, जिस सफलताके साथ व्यक्त किया गया है, वैसा कम-से-कम मध्यप्रदेश में तो कहीं नहीं मिलेगा। वस्त्रके एक-एक तन्तु गिने जा सकते हैं। उसकी सिकुड़न कम विस्मयकारिणी नहीं। सबसे बढ़कर बात तो यह है कि वस्त्र और चोलीके स्थानपर उत्तरीय पट है, उसमें बारीक किनार है। मध्य भागमें जामेट्रिकल बेल-बूटे हैं। कहीं-कहीं चाँदीके गोल फूल, मूंगके दाने के बराबर, लगाये गये हैं। केशविन्यास व नागावलि गुप्तकालीन है । मस्तकपर जो मुकुट है, उसमें तथा कटि-मेखलाके मध्यवर्ती रिक्त स्थानमें क्रमशः पुखराज और माणिक जड़े हुए हैं। मूर्ति ६॥४५॥ इंच है।
चौथी मूर्ति अपने ढंगकी एक ही है । एक व्यक्ति कमलासनपर विराजित है। निम्न भागमें टहनीयुक्त कमलपत्र अपनी स्वाभाविकताकों
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