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विन्ध्यभूमिकी जैन-मूर्तियाँ
२८६ उपलब्ध कलाकृतियोंसे सिद्ध है कि किसी समय यह जैनसंस्कृति एवं जैनाश्रित शिल्पस्थापत्यकलाका प्रधान केन्द्र था । यहाँसे सैकड़ों जैन मूर्तियाँ युक्त प्रान्त एवं भारतके अन्यान्य संग्रहालयोंमें चली गयीं, और चली जा भी रही हैं। तथापि एक संग्रहालय-जितनी सामग्री आज भी वहाँपर बिखरी पड़ी है । वहाँकी जनता मूर्तियाँ बाहर ले जाने में इसलिए कुछ नहीं कहती, कि उन्हें विश्वास है कि जब चाहें, ज़मीनसे मूर्तियाँ निकाल लेंगे। मूर्ति बाहुल्यके कारण, जितना दुरुपयोग वहाँकी जनता द्वारा हुआ या स्पष्ट शब्दोंमें कहा जाय तो भारतीय मूर्तिकलाका जितना नाश, अज्ञानतावश यहाँकी जनताने किया, उतना दुस्साहस अन्यत्र संभवतः न हुआ हो । आँखोंसे देख एवं कानोंसे सुनकर असह्य परिताप होता है। किसानोंके शौचालयसे एक दर्जनसे अधिक जैन मूर्तियाँ मैंने उठवाई होंगी । नालोंपर कपड़े धोनेको शिलाके रूपमें एवं सीढ़ियोंमें, जैन मूर्तियोंका प्रयोग आज भी हो रहा है। जसोको गली-गलीमें भ्रमणकर मैंने अनुभव किया कि प्रायः प्रत्येक गृहके निर्माणमें किसी-न-किसी रूपमें प्राचीन कला-कृतियोंका ऐच्छिक उपयोग हुआ है। इनमें अधिकांश जैनाश्रित कलाके ही प्रतीक हैं । दर्जनों जैन मूर्तियाँ 'खैरमाई के रूपमें पूजी जाती हैं । कई गृहोंमें 'प्रहरी' का कार्य जैन मूर्तियोंको सौंपा गया है। सबसे बड़ा अत्याचार वहाँकी जैन कलाकृतियोंपर तब हुआ था, जब जसोके कथित महाराज जीवित थे। जसोसे 'दुरेहा' जानेवाले मार्गपर समीप ही विशाल स्वच्छ जलाशय है । इसके किनारेपर आजसे क़रीबन पन्द्रह वर्ष पूर्व एक हाथीकी मृत्यु हो गयी थी। वहींपर विशाल गर्त खोदकर हाथीको गड़वाया गया, और गढ़ेकी पूर्तिके रूपमें जसोकी बिखरी हुई प्राचीन कलाकृतियाँ, जिनका उन दिनोंके शासकको दृष्टिमें पत्थरोंसे अधिक मूल्य न था, डाल दी गई। इनमें अधिकांशतः जैन मूर्तियाँ ही थीं, जैसा कि 'नागौद' के भूतपूर्व दीवान तथा पुरातत्त्व प्रेमी श्री भार्गवेन्द्रसिंहजी "लाल साहब'के कहनेसे ज्ञात होता है। लाल साहब नागौद एवं जसोकी एक-एक इंच भूमिसे परिचित हैं एवं
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