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विन्ध्यमूमिकी जैन-मूर्तियाँ
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जालपादेवी मन्दिर में प्रवेश करते ही, सामनेवाले चार अवशेष दृष्टि आकृष्ट कर लेते हैं । इनमें तीन तो जैन हैं, एक वैदिक । मुझे ऐसा लगता है कि तीनों अवशेष भिन्न न होकर एक ही भावके तीन पृथक् अंश हैं | इसमें जो भाव बतलाये हैं, वे अन्यत्र मिलते तो हैं, पाषाणपर नहीं परन्तु चित्रकला में | तीर्थंकर महाराजकी यात्राका भाव परिलक्षित होता है । सर्वप्रथम इन्द्रध्वज तदनन्तर देव देवी ( इनके मस्तकपर सुन्दर मुकुट पड़े हुए हैं अतः देवगणकी कल्पना की है) बादमें तीर्थंकर महाराज, ( इनके चारों ओर समूह बताया गया है) पीछे के भागमें श्रावक वृंद उत्कीर्णित है । इसीमें आगे भगवान्का समवसरण भी निर्दिष्ट है | सौभाग्य से यह संपूर्ण कलाकृति सर्वथा अखंडित बच गई है । लम्बी ४|| फ़ुट, चौड़ाई २|| फुट है । जैन मन्दिर के स्तम्भों में तीर्थंकर प्रतिमाएँ खुदवाने की प्रथा रही है, इसके उदाहरण स्वरूप दर्जन स्तंभावशेष यहाँपर अवस्थित हैं ।
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एक विशेष प्रतिमा
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इसी समूहमें एक सयक्ष अंबिकाको प्रतिमा भी दृष्टिगोचर हुई । परन्तु इसमें कुछ विशेषता है । यह वह कि निम्न भागमें यक्ष दम्पति हैं । आम्रवृक्षका स्थान काफ़ी लंबा है, इसपर भगवान् नेमिनाथकी भव्य प्रतिमा सुशोभित है । वृक्ष-स्थाणु के मध्य भागमें एक नग्न स्त्री वृक्षपर चढ़ती हुई बताई गई है । पासमें एक गुफ़ा जैसा गहरा प्रकोष्ठ भी अलग से उत्कीर्णित है । इन दोनों भावों में राजीमतीका जीवन ही परिलक्षित होता है। गुफ़ाका संबंध राजमतीसे है, गिरिनारकी गुफ़ा में रहनेका उल्लेख जैन साहित्य में आता है । वृक्षपर चढ़नेका अर्थ, कल्पनामें तो यही आता है कि भगवान् नेमिनाथके चरणोंमें जानेको वह उद्युक्त है । अर्थात् मुक्तिमार्ग के प्रदर्शककी सेवा में जानेको तत्पर है । कलाकारने सकारण ही इन भावोंका प्रदर्शन किया है । इस प्रतिमाको मैंने वहाँ से उठवाकर सुरक्षित स्थानमें पहुँचा दी है।
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