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खण्डहरोंका वैभव
पैर अधिक और कुछ बायाँ खंडित है । दोनों ओर चरणके पास श्रावक श्राविका, पार्श्वद तदुपरि दोनों ओर पद्मासनस्थ दो-दो जैन मूर्तियाँ हैं । ऊपर के भाग में सप्तफणके चिह्न बने हुए हैं, निम्न भागमें दायीं बायीं ओर क्रमशः यक्ष, यक्षिणी, धरणेन्द्र पद्मावती विद्यमान हैं । संख्या ६०– यह भी किसी जैन मन्दिरके तोरणका अंश है, मूर्ति प्रायः खंडित है | अशोक वृक्षकी छाया में अवस्थित है ।
संख्या ६५ – यह भी है तो किसी तोरणका अंश ही, पर उपर्युक्त अवशेषोंसे प्राचीन है । मध्य भाग में तीर्थंकर की मूर्ति, बाजूके ऊपरी भाग में चतुर्भुजादेवी मनुष्यपर सवारी किये हुए अवस्थित है । समय अनुमानतः १३वीं सदी है ।
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संख्या ४४ – की प्रतिमाकी लम्बाई २६ इंच, चौड़ाई १५ ॥ इंच है । शिलापर स्त्रीमूर्ति चतुर्भुजी खुदी हुई है । दायाँ हाथ आशीर्वाद स्वरूप, ऊपरका गदा लिये और बायें निम्न हाथमें शंख और ऊपर के हाथमें चक्र इस प्रकार चारों हाथ स्पष्ट हैं । मूर्तिका वाहन कोई स्त्रीका है । क्योंकि पिछले भाग में केशविन्यास स्पष्ट दिखाई देता है। वाहनके दोनों ओर श्रावक-श्राविकाएँ वन्दना कर रही हैं। मूल देवीकी प्रतिमा हँसली, माला, जनेऊ धारण किये हुए हैं, परन्तु सभी में नागावलीने मूर्तिका सौदर्य बहुत अंशों में बढ़ा दिया है । देवीके मस्तकपर पद्मासनस्थ तीर्थंकरप्रतिमा दिखलाई पड़ती है | दोनों ओर गन्धर्व पुष्पमाला लिये हुए खड़े हैं । इस प्रतिमा में व्यवहृत पाषाण शंकरगढ़ की तरफ़का है। ऐसा सुपरिण्टेण्डेण्ट
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यह शंकरगढ़ यही होना चाहिए, जो उचहरासे कुछ मीलपर अवस्थित है | और यहाँपर भी जैन पुरातत्त्व के अतिरिक्त और भी कलात्मक साधन-सामग्री प्रचुर परिमाण में उपलब्ध होती है । एक शंकरगढ़ प्रयागसे २८ मीलपर है । यहाँपर भी पुरातन मूर्तियाँ एवं एक मंदिर है | परन्तु यहाँ उल्लिखित शंकरगढ़ यह प्रतीत नहीं होता ।
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