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विन्ध्यभूमिकी जैन-मूर्तियाँ
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है, कारण कि स्कन्ध प्रदेशपर केशावली एवं वृषभका चिह्न स्पष्ट है । रचना शैलीसे ज्ञात होता है कि कलाकारने प्राचीन जैन प्रतिमाओंके आधारपर इसका सृजन किया है। अन्य मूर्तियोंकी भाँति इसकी बाँयी ओर दाँयो ओर क्रमशः कुबेर एवं अंबिका अवस्थित हैं । परिकरके अन्य सभी उपकरण जैन प्रतिमाओंसे साम्य रखते हैं।
संख्या १०४-लंबाई ४८ चौड़ाई २१ इंच ।
आश्चर्य गृहमें प्रवेश करते ही छोटी बड़ी शिलाओंपर एवं सती स्तम्भोंपर कुछ लेख दिखलाई पड़ते हैं । इन लेखोंके पश्चिमकी ओर अंतिम भागमें एक ऐसा जैन अवशेष पड़ा हुआ है, जिसके चारों ओर तीर्थंकरोंकी मूर्तियाँ खुदी हैं । ऊपरके भागमें करीब १८ इंचका शिखर आमलक युक्त बना हुआ है। इसे देखनेसे ज्ञात होता है कि एक मंदिर रहा होगा। चारों दिशामें इस प्रकार मूर्तियाँ खुदी हुई हैं, कि पूर्वमें अजितनाथकी मूर्ति जिसके आसनके निम्न भागमें हस्तिचिह्न स्पष्ट है । दक्षिणकी ओर भगवान् पार्श्वनाथकी सप्तफण युक्त प्रतिमा है । इसके निम्न भागमें दायीं ओर भक्त स्त्री एवं बायीं ओर चतुर्भुजी देवी, जिसके मस्तकपर नाग फन किये हुए हैं। असंभव नहीं कि वह पद्मावती ही हो । पश्चिमकी ओर भी तीर्थकरकी मूर्ति है, इसके दायीं ओर एक स्त्री आम्रवृक्षको छाया में बायीं ओरमें बच्चेको लिये, दाहिने हाथमें आम्र लुम्ब थामे सिंहपर सवारी किये हुए अवस्थित है। निःसंदेह यह प्रतिमा अंबिकाकी ही होनी चाहिए । अतः उपर्युक्त तीर्थंकर प्रतिमा भी नेमिनाथकी ही होनी चाहिए, क्योंकि वही इसके अधिष्ठातृ हैं । दायीं ओर बालिका करबद्ध अंजलि किये हुए है। यों तो बालकके ही समान दिखलाई पड़ती है, पर केशविन्यास एवं स्त्रियोचित आभूषण पहनने के कारण बालिका ही प्रतीत होती है । उन्तरकी ओर जो मुख्य तीर्थकरकी प्रतिमा खुदी हुई है, उन प्रतिमाओंकी अपेक्षा शारीरिक गठन और कलाकी दृष्टिसे अधिक प्रभावोत्पादक है। वृषभका चिह्न स्पष्ट न होते हुए भी स्कन्ध प्रदेशपर फैली हुई केशावली, इस बातकी सूचना देती है कि वह प्रतिमा युगादिदेवकी
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