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खण्डहरोंका वैभव
आकृतियाँ भी इनसे मेल खाती हैं । शिखर नागर शैलीके मिलते हैं, यह शैली भारशिवों द्वारा आविष्कृत हुई है।
यक्षिणोका व्यापक रूप
शासनदेवियोंमें पद्मावती, अम्बिका और चक्रेश्वरीकी मान्यता सर्वत्र प्रधान रूपसे प्रसृत है । पर इस ओर तो सभी तीर्थकरकी यक्षिणीका स्वतन्त्र अंकन साधारण बात थी । अम्बिका और चक्रेश्वरीके, यहाँकी मूर्तिकलामें, कई रूप मिलते हैं। चक्रेश्वरीकी बैठो और खड़ी कई प्रकारकी स्वतंत्र मूर्तियाँ मिलती हैं। स्वतंत्र मंदिर तो इसी ओरकी देन हैं। अम्बिकाका व्यापक व्यक्तित्व जितना यहाँके कलाकार चित्रित कर सके हैं, शायद अन्यत्र न मिले । एक ही अम्बिकाके ३-४ रूप मिलते हैं । प्रथम तो सामान्य रूप जैसा परिकरमें उत्कीर्णित रहता है। दूसरा प्रकार शुंगकालीन कलाका स्मरण दिलाता है। मथुराके अवशेषों में इसकी अभिव्यक्तिका पता लगाया जा सकता है। आम्रवृक्षकी छाया में गोमेधयक्ष और यक्षिणी अम्बिका बालकोंको लिये क्रमशः दायीं बायीं ओर अवस्थित हैं। वृक्षपर भगवान् नेमिनाथ पद्मासनमें हैं। निम्न भागमें राजुल भी प्रभुके प्रशस्त पथका अनुकरण करती हुई बताई है। जसोसे प्राप्त प्रतिमा में भी एक नग्न स्त्री वृक्षपर चढ़नेका प्रयास करती हुई बताई है, उनका मुख ऊपरवाली मूर्तिकी
ओर है, सतृष्ण नेत्रोंसे देख रही है, मानो प्रभुके चरणोंमें जानेको उत्सुक हो । इस प्रकारकी मूर्तियाँ विन्ध्यभूमिके अतिरिक्त तन्निकटवर्ती महाकोसलके त्रिपुरी, गढ़ा, पनागर, बिलहरी और कारीतराई आदि स्थानोंमें भी मिलती हैं। इस शैलीका प्रादुर्भाव कुषाणकालमें हो चुका था, जैसा कि मथुरा और कौशाम्बीके जैन अवशेषोंसे सिद्ध होता है । विन्ध्य-कलाकारोंने इसमें सामयिक परिवर्तन किये। अम्बिकाका तृतीय रूप प्रस्तुत निबन्धमें ही वर्णित है। उच्चकल्प-उचहराके खंडहरोंमें एक रूप और देखा जो विचित्रताको लिये हुए है। ४०४२६ इंचकी शिलापर
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