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विन्ध्यभूमिको जैन-मूर्तियाँ वे कितनी ही लघुतम क्यों न हों। प्रत्येक प्रतिमामें दाई-बाई क्रमशः यक्ष-यक्षिणी एवं श्रावक-श्राविकाका अंकन अवश्य ही होगा, जब कि अन्य प्रान्तको बहुत-सी ऐसी प्रतिमाएँ मिलेगो, जिनमें यक्ष-यक्षीका अभाव पाया जायगा । विन्ध्यके कलाकार इस बातमें बहुत सजग थे। ३०० से अधिक मूर्तियाँ मैंने देखीं, सभीमें उक्त नियम स्पष्ट परिलक्षित होता आया है । दूसरी देन स्वतन्त्र आसनकी है, अन्य प्रान्तकी मूर्तियोंका आसन प्रायः कमलकी आकृतिसे खचित या प्लैन रहता है। पर विन्ध्यका आसन उन सबमें अलग ही निखर उठता है। विन्ध्यमूर्तिका निम्न भाग ऐसा होता है-दोनों ओर मंगलमुख-सशरीर होते हैं । इनके मस्तकपर एक चौकीनुमा भाग होता है। दो स्तम्भ एवं किनार, तदुपरि अग्र भागमें बारीक खुदाईको लिये हुए लटकता हुआ वस्त्र-छोर, ऊपर गद्दी जैसा चौड़ा ऊँचा आसन, इसपर मूर्ति दृष्टिगोचर होंगी, ऐसा आसन महाकोसल
और विन्ध्यप्रदेशको छोड़कर अन्यत्र न मिलेगा। तीसरी विशेषता यह भी दृष्टिगोचर हुई, जिसका उल्लेख शिल्प या वास्तु ग्रंथोंमें नहीं है, पर कलाकारोंने प्रभावमें आकर अंकन कर दिया प्रतीत होता है जो स्वाभाविक भी जान पड़ता है । यद्यपि वह विशेषता उतनी व्यापक नहीं है। नागौद और जसोंमें मैंने १२ प्रतिमाएँ ऐसी देखीं जिनका परिकर उनके जीवनके विशिष्ट प्रसंगोंसे भरा पड़ा है। भगवान् ऋषभदेवके पुत्रोंका राज्यविभाजन, दीक्षाप्रसंग, भरत-बाहुबलीयुद्ध आदि । महावीर स्वामीकी प्रतिमामें कुछेक पूर्वभव और दीक्षा-प्रसंग अंकित है । ये दोनों अपने ढंगका अन्यतम एवं अश्रुतपूर्व हैं। दशावतारी विष्णु और शिवजीकी ऐसी प्रतिमाएँ मिलती हैं । कलाकारने इनका अनुसरण किया ज्ञात होता है। अन्यत्र आबू आदि जैन मन्दिरोंमें तो तीर्थंकरोंके पूर्वजीवनके वैराग्योत्प्रेरक भावोंका अंकन पाया जाता है, पर परिकर में कहीं सुना नहीं गया। इस ओरकी अधिकतर प्रतिमाएँ ऐसी मिलेंगी, जिनपर सम्पूर्ण शिखरकी आकृति बनी रहती है । जगतीसे लगाकर कलशतक सकल अलंकृत रहता है। तोरणद्वारोंवाली
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