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विन्ध्यभूमिको जैन-मूर्तियाँ
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सकी, कारण कि उन दिनों रीवाँपर राजनैतिक बादल मँडरा रहे थे ।
वाँ- राज्य में इतने पुरातन अवशेष उपलब्ध हुए हैं कि उनसे कई ये मन्दिर बन गये । रीवाँका लक्ष्मणबागवाला नूतन मंदिर इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है । वहाँ के महन्त ने गुर्गीसे कलापूर्ण अवशेषोंको मँगवाकर, आवश्यकतानुसार तुड़वाकर, स्वतंत्र मन्दिर अभी ही बना लिया है । इनमें जैन अवशेषोंकी सामग्री भी मैंने प्रत्यक्ष देखी । प्राचीन कलाका इतना व्यापक ध्वंस होनेके बावजूद भी, भारत सरकारका पुरातत्त्व विभाग मौन सेवन कर रहा है । रीवा- राज्यके बचे-खुचे अवशेष मौलवी अयाज़अली द्वारा "व्यंकट विद्यासदन" में पहुँच गये हैं और सापेक्षातः सुरक्षित भी हैं। उपर्युक्त सदन साधारणतः पुरातन अवशेषोंका केन्द्र बन गया है । इसमें कई ताम्रपत्र, शिलोत्कीर्णित लेख, प्राचीन मूर्तियाँ, कुछ हस्तलिखित ग्रन्थ एवं शस्त्रास्त्रोंका अच्छा संग्रह है । जैन मूर्तियों की संख्या भी पर्याप्त है । पर अपेक्षित ज्ञानकी अपूर्णता के कारण सभीपर जो लेबिल लगे हैं, वे इन्हें बौद्ध ही घोषित करते हैं । स्वतन्त्र भारतके अजायबघर में ऐसे क्यूरेटर न होने चाहिए जो स्वयं वहाँ के योग्य न हों। उन्होंने मेरे कहनेसे परिवर्तन तो कर दिया पर अजैन सैकड़ों अवशेषोंपर ग़लत नाम लगे हैं । उदाहरण स्वरूप नृसिंहावतारको " सिंहेश्वर देव" फणयुक्त पार्श्वनाथको - " सर्पेश्वर देव" आदि ।
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रीवाँ संग्रहालयके जैन अवशेष इस प्रकार हैं
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संख्या ४—— की मूर्ति २७ इंच लम्बी २६ इंच चौड़ी प्रस्तरकी शिलापर भगवान् पार्श्वनाथकी प्रतिमा अर्द्धपद्मासनस्थ अंकित है, मस्तकपर घुँघुरवाले जैसी आकृति कलाकारने बतलाई है । लम्ब कर्ण, गलेकी रेखाएँ प्रेक्षकको आकृष्ट कर लेती हैं, छातीपर छोटी-मोटी टॉकीकी मार दिखाई पड़ती है । मुख पूर्णतः खंडित तो नहीं है, पर इस प्रकार से जर्जरिज हो गया है कि किसी भी प्रकारके भावोंकी कल्पना नहीं की जा
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