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विन्ध्यभूमिकी जैन- मूर्तियाँ
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एक सघन फल सहित आम्रवृक्ष उत्कीर्णित है । देवी अम्बिका इसकी डालपर बैठी है । निम्न स्थान में पूँछ फटकारता हुआ सिंह, तनकर खड़ा . है । सर्वोच्च भाग में भगवान् नेमिनाथ पद्मासन में हैं। दोनों ओर एक-एक खड्गासन भी है । केवल अम्बिका, पद्मावती या चक्रेश्वरीके मस्तकपर क्रमशः नेमिनाथ, पार्श्वनाथ और युगादिदेव तो प्रायः सर्वत्र ही मिलते हैं । पाठक देखेंगे कलाकार जैन वास्तुशास्त्रकी रक्षा करते हुए, सामयिक परिवर्तन करते गये हैं ।
शैव प्रभाव
यक्ष और यक्षिणियोंकी प्रतिमाओंपर शैव कलाकृतियोंका आंशिक प्रभाव दृष्टिगोचर होता है । यहाँ शुंग कालसे ही उनका प्रचार था, बाद में उत्तरोत्तर बढ़ता ही गया । भारशिवों के समयमें तो वह मध्याह्नमें था, अतः कलात्मक परम्पराका प्रभाव कलाकारोंपर कैसे नही पड़ता ? शिवजीके जटाजूटका अंकन यहाँ के यक्षोंके मस्तकपर भी पड़ा । जितनी यक्ष मूर्तियाँ (परिकरान्तर्गत ) हैं उनके मस्तककी जटा और गुंथा हुआ रूप इसका द्योतक है । भगवान् ऋषभदेवकी जटा यहाँकी प्रतिमाओंमें और ढंगकी मिलती है— पूरा मस्तक जटासे आच्छादित रहता है, कुछ भाग उठा हुआ भी मिलता है । मुकुट भी इसका विस्तृत कलात्मक संस्करण है । यह शैव संस्कृतिको देन है । इस विषयपर मैं अन्यत्र काफ़ी लिख चुका हूँ ।
तोरणद्वार
मूर्तियों के अतिरिक्त इस ओर तोरणद्वार भी काफ़ी परिमाण में मिलते
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है | खजुराहो, नचना, अजयगढ़, गुर्गी, रीवाँ, जसो और उच्चकल्पउचहरा में अनेकों कलापूर्ण, विविध रेखाओंसे अंकित जैनतोरण मिले हैं । इनमें तीन प्रतिमाएँ 'जिन' की होती हैं और शेष भाग में कीर्तिमुख आदि रेखाएँ । किसी-किसीमें जैन तीर्थंकरों के अभिषेकके दृश्य भी देखने में आये ।
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