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प्रयाग-संग्रहालयकी जैन-मूर्तियाँ २६३ लिख रहा हूँ कि वहाँपर जो अवशेष, जिस रूपसे रखे गये हैं, वे न तो कलाभिरुचिके द्योतक हैं और न सुरक्षाको दृष्टि से ही समीचीन । स्थानकी सफ़ाईपर ध्यान देना भी आवश्यक है । इतने सुन्दर कलात्मक अवशेषोको पाकर भी कार्यवाहक-मंडल इन्हें कलातीर्थका रूप न दे सका, तो दोष उनका ही होगा । बिखरे हुए कलात्मक अवशेषोंको एकत्र करना कठिन तो है ही, परन्तु इससे भी कठिनतर काम है उनको सँभालकर सुरक्षित रखने का । यह भी तो एक जीवित कला ही है ।
भारतीय स्थापत्य कलाके अनन्य उपासक रायबहादुर श्री ब्रजमोहनजी व्यासको धन्यवाद दिये बिना मेरा कार्य अधूरा ही रह जाता है । कारण, इस संग्रहालयको समृद्ध बनानेमें व्यासजीने जितना रक्तशोषक श्रम किया है, वह शायद ही दूसरा कोई कर सके । आज भी आपमें वही उत्साह
और पुरातत्त्वके पीछे पागल रहनेवाली लगनके साथ, औदार्य भी है। आप संस्कृत साहित्यके गहरे अभ्यासी हैं । वैदिक संस्कृतिके परम उपासक होते हुए भी जैन-पुरातत्त्व और साहित्यपर आपका आज भी इतना स्नेह है कि जहाँ कहीं भी कोई चीज मिलनेकी संभावना हो, आप दौड़ पड़ते हैं । वे मुझे बता रहे थे कि आज भी बुंदेलखंडसे दो बैगन भरकर जैन मूर्तियाँ मिल सकती हैं। मुझे आपने जिस आत्मीयतासे तत्रस्थ जैन मूर्तियोंके अध्ययनमें सुविधाएँ दीं; उनको मैं किन शब्दोंमें व्यक्त करूँ ? इस संबंधमें प्रकाशित कुछ चित्र भी उन्हींके द्वारा मुझे प्राप्त हुए हैं। श्री संगमलालजी अग्रवालके पुत्रने अपना समय निकालकर अवशेषोंकी फोटो आदिमें सहायता दी थी, एतदर्थ मैं उनका भी आभारी हूँ। २५ अगस्त १९४६ ]
बादमें १९५० में मैंने स्वयं उनके बताये हुए स्थानोंपर भ्रमण कर खंडहरोंका साक्षात्कार किया जिसका विवरण आगे दिया जा रहा है।
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