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प्रयाग - संग्रहालयकी जैन- मूर्तियाँ
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जा सकता है, हृदयंगम भी किया जा सकता है, परन्तु वर्णमाला के सीमित अक्षरों में कैसे बाँधा जाय ! इन अवशेषोंमें कुछ जैन-अवशेष भी हैं जिनका परिचय इस प्रकार है । अवशेषोंकी संख्या अधिक है । कुछ तो श्याम पाषाणपर उत्कीर्णित हैं । मैंने मध्यप्रान्तमें भी ऐसे ही श्याम पाषाणपर खुदी हुई मूर्त्तियाँ देखी हैं। बहुरीचंदवाली मूर्ति से यह पाषाण समानता रखता है | संभव है त्रिपुरीका जब उत्कर्ष काल रहा होगा, तब शिल्प-कला के उपकरण के रूप में पाषाण भी बुंदेलखण्ड में कलाकारों द्वारा, मध्यप्रांत से जाता रहा होगा। क्योंकि खजुराहो जबलपुर से बहुत दूर नहीं है ।
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एक जैन प्रतिमाका निम्न भाग पड़ा है। इस चरणको देखते ही कल्पना की जा सकती है कि प्रस्तुत प्रतिमा भी ६० इंचसे क्या कम रही होगी, क्योंकि २२ इंच तक तो घुटनेका ही भाग है । शिल्पकला के पारखी भलीभाँति परिचित हैं कि किसी भी विषयकी संपूर्ण प्रतिमाके सौन्दर्यको समझने के लिए उसका एक अंग ही पर्याप्त होता है । इस दृष्टिसे तो मुझे यही कहना पड़ेगा कि प्रस्तुत मूर्तिको शिल्पीने गढ़ ही डाला है । उनके हाथ और छेनी ही काम कर रही थी । हृदय और मस्तिष्क शायद शून्यवादमें परिणत हो गये होंगे | सौभाग्यसे संपूर्ण संग्रहालय में यही एक ऐसी जैन तीर्थंकरकी प्रतिमा है, जिसपर निर्माणकाल सूचक लेख भी खुदा हुआ है, जिसमें बलात्कारगण वीरनंदी और वर्धमान के नाम पढ़े जाते हैं । १२१४ फाल्गुन सुदी & बताया गया है । यदि इस संवत्को सही मानते हैं तो लिपि और निर्माणकाल में अन्तर होनेके कारण उसपर ऐतिहासिक और मूर्तिविज्ञानके विशेषज्ञ एकाएक विश्वास नहीं कर सकते। बाजूमें ही २७४ नं० का एक टुकड़ा है, जो २७३ से संबंधित प्रतीत होता है । इन टुकड़ों के निम्न भाग में बहुत ही सुन्दर और सूक्ष्म ७ नग्न प्रतिमाएँ खुदी हैं, इन अवशेषोंसे ही विदित होता है कि प्रतिमा बड़ी सौन्दर्य-संपन्न रही होगी ।
नं० ३०२ -- यह प्रतिमा ऋषभदेवकी है ।
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