________________
खण्डहरोंका वैभव
२३५ - यह प्रतिमा किसी मुख्य प्रतिमाके बायें भागका एक अंश दिखती है । यद्यपि प्रतिमाविधानकी दृष्टिसे स्वतन्त्र मूर्ति ही मानें तो हर्ज़ नहीं है । इसका मस्तक किसी हृदयहीन व्यक्तिने जानबूझकर खंडित कर दिया है । पर किसी सहृदय व्यक्तिने उसे सीमेण्टसे भद्दे रूपसे चिपका दिया है ।
२४२
४२-२३ इंचकी मटमैली शिलापर प्रस्तुत जिन - प्रतिमा उत्कीर्ण है । इसका निर्माण सचमुच में कुशल कलाकारद्वारा हुआ है । भावमुद्रा और शिलोत्कीर्णित परिकरका गठन, सौन्दर्यके प्रतीक हैं, परन्तु बायाँ घुटना जानबूझकर बुरी तरह से खंडित कर दिया है । मूल प्रतिमा पद्मासनमें है । उभय ओर १८ इंच की दो खड्डासनस्थ प्रतिमाएँ हैं । उनमें शांत रसका उद्दीपन स्पष्ट है । मुखमुद्रा में समत्वकी भावना झलक रही है। दोनों के निम्न भागमें एक-एक पार्श्वद हैं । उपर्युक्त प्रतिमाका निम्न भाग स्वभावतः पाँच भागों में बँट गया है । दक्षिण प्रथम भाग में एक गृहस्थ हाथ जोड़े घुटना टेककर वंदना कर रहा है। बाजू में सुखासन में एक मूर्ति खुदी हुई है । शिल्पशास्त्रकी दृष्टिसे तो इस स्थानपर अधिष्ठाता गोमुख यक्षको प्रतिमा होनी चाहिए, क्योंकि यह प्रतिमा ऋषभदेव स्वामीकी है । दिगम्बर और श्वेताम्बर शिल्पशास्त्रों में वर्णित अधिष्ठाताका स्वरूप इससे सर्वथा भिन्न है | सबसे बड़ा भिन्नत्व यही पाया जाता है कि यक्षके चार हाथ होने चाहिए जब कि यहाँ पर जो प्रतिमा खुदी है वह दो हाथोंवाली ही है । अतः इसे किस रूपमें माना जाय ? मैं अपने अनुभवोंके आधारपर दृढ़तापूर्वक कह सकूँगा, कि यह सुखासनस्थ विराजित प्रतिमा कुबेरकी ही होनी चाहिए | कारण कि मुझे सिरपुरसे नवम शताब्दीकी एक ऋषभदेव स्वामी की धातु प्रतिमा प्राप्त हुई थी, उसमें भी इसी स्थानपर कुबेरकी प्रतिमा विराजमान थी और बायीं ओर द्विभुजी अम्बिका की । प्रस्तुत प्रतिमामें भी बायीं ओर आम्रलुम्ब लिये और बायें हाथसे एक बच्चेको कटिपर थामें, अंबिकाकी मूर्ति सष्ट दिखायी गयी है । बाजूमें एक गृहस्थ स्त्री
Aho ! Shrutgyanam