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खण्डहरोंका वैभव
बात का है कि दोनों अधिष्ठातृ देवियोंके निकट भाग में दो-दो कायोत्सर्ग मुद्राकी मूर्तियाँ हैं । अन्यत्र देवियोंके पार्श्ववर्ती प्रदेश में जैन तीर्थंकरकी मूर्तियाँ नहीं मिलतीं। यदि मिलती हैं तो वीतरागके परिकर में ही । उपर्युक्त दोनों शिखरों के मध्य भागमें दो हिस्से पड़ जाते हैं, जो दोनों देवियोंके ऊपर हैं । इनमें भी तीन-तीन पद्मासनस्थ जैन मूर्तियाँ हैं । समस्त मूर्तियाँ यद्यपि वीतराग भावनाका प्रतीक हैं, तथापि मुख मुद्रामें सामंजस्य नहीं पाया जाता । इस संपूर्ण पट्टिकामें स्वतन्त्र मंदिरका अनुभव होता है । अब इसे स्वतन्त्र मंदिर मानें या किसी मंदिरके तोरणका उपरिअंश ? इसका निर्माणकाल ११ वीं शतीके बादका प्रतीत नहीं होता है ।
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अम्बिका
नगर सभा-संग्रहालय के उद्यान कूपके निकट छोटेसे छप्पर में एक ६८३६ इंची रक्त प्रस्तर शिलापर विभिन्न आभूषण युक्त कलात्मक प्रतिमा, सपरिकर उत्कीर्णित है । इस प्रतिमाने मुझे ऐसा प्रभावित किया कि जीवन पर्यन्त उसका विस्मरण मेरे लिए असंभव हो गया। बात यह है कि, संपूर्ण भारत में इस प्रकारकी प्रतिमा आजतक न मेरे देखने में आयी है और न कहीं होने की सूचना ही मिली है। मूर्ति अंबिका देवीकी है । इसका परिकर न केवल जैन- शिल्प-स्थापत्य कलाका समुज्ज्वल प्रतीक है, अपितु भारतीय देवी - मूर्ति कलाकी दृष्टिसे भी अनुपम है | स्पष्ट कहा जाय तो यह भारतीय शिल्प स्थापत्य कला में जैनों की मौलिक देन-सी है । यों तो अंबिका इतनी व्यापक देवी रही है कि प्राचीन कालीन प्रायः सभी जैन मूर्तियों में इसकी सफल अभिव्यक्ति हुई है। साथ ही साथ पश्चिम एवं उत्तरभारतीय कलाको बहुत-सी धारा इसीपर बही है, जैसा कि तत्र प्राप्त अवशेषोंसे फलित होता है । इस मूर्तिका वैशिष्ट्य न केवल कला या वास्तु-शास्त्रकी दृष्टिसे ही है, अपितु आभूषण बाहुल्य के कारण सामाजिक दृष्टिसे भी है । मूर्तिका संपूर्ण परिचय इस प्रकार है:
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शिलाके मध्य भाग में चतुर्मुखी अंबिका ४१ इंच में अंकित हैं। चारों
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