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खण्डहरोंका वैभव श्वेताम्बर आचार्य रचित शिल्प ग्रन्थोंमें अंबिकाका रूप इन शब्दोंमें वर्णित है :
"तस्मिन्नेव तीर्थे समुत्पन्नां कूष्मांडी देवी कनकवर्णा सिंहवाहनां चतुर्भुजां मातुलिंगपाश-युक्त-दक्षिणकरां पुत्राङ्कुशान्वितवामकरां चेति ।"
-उन्हींके तीर्थों में कूष्माण्ड (अम्बिका) नामक देवी है, वह सुवर्ण वर्णवाली, सिंहवाहिनी और चार हाथवाली है। उसके दक्षिण उभय हस्तमें बीजपूरक और पाश है । बायें दो हाथोंमें पुत्र और अंकुश हैं । कुछ ग्रन्थोंमें दायें हाथमें आम्रलुम्ब या फल रहने के उल्लेख भी दृष्टिमें आये हैं। दिगम्बर संम्प्रदायके अनुसार अंबिकाका स्वरूप इस प्रकार है :
"सव्येकधुपगप्रियंकरसुतं प्रीत्यै करे बिभ्रती, दिव्याघ्रस्तवकं शुभंकरकरश्लिष्टान्यहस्तांगुलीम् । सिंहे भर्तृचरे स्थितां हरितमामानगुमच्छायगां
वन्यारुं दशकार्मुकोच्छ्यजिनं देवीमिहाम्रो यजे ॥" ___-दस धनुषके देहवाले श्री नेमिनाथ भगवान्की आम्रा (कूष्माण्डिनी) देवी है । वह हरितवर्णा, सिंहपर आरूढ़ होनेवाली, आम्र छाया में निवास करनेवाली और द्वयभुजी है। बायें हाथमें प्रियंकर नामक पुत्र स्नेहार्द्र आम्रडालको तथा दायें हाथमें दूसरे पुत्र शुभंकरको धारण करनेवाली है ।
उपर्युक्त पंक्तियोंमें वर्णित अम्बिकाके दोनों स्वरूप सामयिक परिवर्तनके साथ प्राचीन कालसे ही भारतीय मूर्तिकलामें विकसित रहे हैं। परन्तु इस मौलिक स्वरूपकी रक्षा करते हुए, कलाकारोंने समयकी माँगको देखकर या सामाजिक परिवर्तनों एवं शिल्पकलामें आनेवाले नवीन उपकरणोंको अपना लिया है, जैसा कि प्रत्येक शताब्दीकी विभिन्नतम प्रतिमाओंके अवलोकनसे ज्ञात होता है । यों तो प्राप्त अम्बिकाकी प्रतिमाअोंके आधारपर उनके शिल्प-कलात्मक क्रमिक विकासपर सर्वांगपूर्ण प्रकाश डाला जाय तो केवल अम्बिकाकी मूर्तियोंपर एक अच्छा-सा स्वतन्त्र ग्रन्थ प्रस्तुत किया जा सकता है, क्योंकि वह देवी अन्य तीर्थंकरोंकी अधिष्ठातृ देवियों
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