________________
प्रयाग-संग्रहालयकी जैन-मूर्तियाँ
२५३
निर्माण काल क्या हो सकता है ? कारण कि निर्माताका नाम है, पर सृजन कालकी सूचना नहीं है। इससे निश्चित समयका भले ही पता न चले, पर अनुमित निर्णय तो हो ही सकता है । प्रतिमाके आभूषण, उनकी रचना शैली और लिपि इन तीनोंमेंसे मैंने इसका समय १२-१३ वीं शतीका मध्य भाग माना है। कारण कि इस शैलीकी मूर्तियाँ और भी देवगढ़ तथा मध्यप्रान्तमें पायी गयी हैं। ____ उपर्युक्त कलाकृतिको घंटों देखते रहिए, “पदे पदे यन्नवतामुपैति तदेव रूपं रमणीयतायाः” पंक्ति पुनः पुनः साकार होती जायगी। मनुष्य ऐसी कृतियों के सम्मुख अपने आपको खो बैठता है। अम्बिकाको' एक और मूर्ति __प्रस्तुत संग्रहालयमें ऐसी ही और भी आकर्षक मूर्तियाँ हैं, जो न केवल जैन-मूर्ति कलाका ही मुख उज्ज्वल करती हैं, अपितु नवीन तथ्योंको भी लिये हुए हैं। इनके रहस्यसे भारतीय पुरातत्त्वके अन्वेषक प्रायः वंचित हैं । यद्यपि ये सभी एक ही रूपकका अनुगमन करती हैं, तथापि रचना काल और ढंग भिन्न होने के कारण कलाकी दृष्टिसे उनका अपना महत्त्व है । शब्द-चित्र इस प्रकार है :___ एक वृक्षकी दो शाखाएँ विस्तृत रूपमें फैली हुई हैं, इनकी पंखुड़ियोंके छोरपर उभय भागोंमें पुष्पमाला धारण किये देवियाँ हैं। वृक्षको छायामें दायीं ओर पुरुष और बायीं ओर स्त्री अवस्थित है । पुरुषके बायें घुटनेपर एक बालक है । स्त्रीके बायें घुटनेपर भी बालक है, दाहिने हाथमें आम्रफल या बीजपूरक प्रतीत होता है। दोनों बालकोंके हाथोंमें भी फल हैं । पुरुषका दाहिना हाथ खंडित है, अतः निश्चित नहीं कहा जा सकता कि उसमें क्या था । पुरुषके मस्तकपर नोकदार मुकुट पड़ा हुआ है। गला यज्ञोपवीत और आभूषणोंसे विभूषित है। दंपति स्वतन्त्र दो आसन
सतीशचन्द्र काला इसे 'मानसी' मानते हैं, यह उनका भ्रम है।
Aho! Shrutgyanam