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खण्डहरोंका वैभव
चाहिए, जिसमें छत्र, देवांगना, अशोकवृक्ष आदि चिह्न रहे होंगे। बाँयी ओर भी दक्षिणके समान ही मूर्तियाँ होंगी। इस ओरका भाग अपेक्षाकृत अधिक खंडित है। मुझे तो लगता है कि यह जान-बूझकर किसी साम्प्रदायिक मनोवृत्तिवालेने तोड़ दिया है। कारण कि खंडित करनेका ढंग ही कह रहा है। आज भी ऐसा करते मैंने तो कइयोंको देखा है। राजिम (C.P.) में एक कट्टर ब्राह्मणने पार्श्वनाथकी मूर्तिको एक जैनके देखते-देखते ही लाठीसे दो टुकड़े कर दिये ।
प्रश्न होता है-इसका निर्माण-काल क्या रहा होगा ? पुरानी सभी जैन-प्रतिमाओंके लिए यही समस्या है । इसे अपने अनुभवोंके आधारसे ही सुलझाया जा सकता है। इस मूर्ति में तीन बातें ऐसी पायी जाती हैं जो काल निश्चित करने में थोड़ी बहुत मदद दे सकती हैं-(१) आसनके नीचेका भाग, (२) मस्तकपर केश गुच्छक, (३) भामंडल-प्रभावली। मथुराकी प्रतिमाओंसे कुछेकके आसन प्लेन होते हैं या साधारण चौकी जैसा स्थान होता है। इस प्रकारकी पद्धतिके दर्शन मध्यकालीन जैन-मूर्तियोंमें होते हैं, पर कम। मकराकृतियाँ या कीर्तिमुखका भी अभाव इस प्रतिमामें है। (२) केश गुच्छक पुरानी मूर्तियोंमें और गुप्तकालीन महुडीको जैन मूर्तियोंमें दिखलाया गया है, पर वे सारे मस्तकको घेरे हुए हैं। जब ७ वीं शतीके बाद वह केवल तलुआतक ही सीमित रह गया है । इस प्रकारका केशगुच्छक मध्यकालीन प्रस्तर और धातुकी मूर्तियोंमें दिखाई पड़ता है। ११ वीं शताब्दीतक इसका प्रचार रहा, बादमें परिवर्तन हुआ, (३) भामंडलप्रभावलीकी कमल पंखुड़ियाँ भी मध्यकालीन बौद्ध प्रभामंडलसे मिलती हैं। इन तीनों कारणोंसे यह निश्चित होता है कि मूर्तिका रचनाकाल हवीं शतीसे ११ वीं शतीके भीतरका भाग होना चाहिए। इसी कालकी और भी मूर्तियाँ प्राप्त होती हैं । उनके तुलनात्मक अध्ययनसे भी यही फलित होता है।
६१२-संख्यावाली प्रतिमा तत्र स्थित समस्त जैन-प्रतिमाओंमें अत्यन्त विशाल है । लम्बाई चौड़ाई ५१"४१८" है। कलाकी दृष्टि से
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