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प्रयाग-संग्रहालयकी जैन-मूर्तियाँ
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और सौन्दर्यको दृष्टि से इसका कुछ भी महत्त्व नहीं है क्योंकि शारीरिक गठन बड़ा भद्दा है । चरणोंको देखनेसे पता लगता है कि दो खम्भे खड़े कर दिये हों । दोनों परिचारकोंके साथ भक्त स्त्रियोंके शिल्प अंकित हैं, जो उत्तरीय वस्त्र और कछौटा धारण कये हुए हैं । बायीं ओर मकरके बगलमें कुबेर, एवं तदुपरि अंबिका, गोदमें बच्चे लिये हैं । इसके ऊपर दो खड्गासनस्थ जैन-प्रतिमाएँ हैं । मस्तकके दोनों ओर देव-देवियाँ हैं । दक्षिण भागके कटावसे प्रतीत होता है कि इस विशाल मूर्तिका परिकर काफ़ी विस्तृत रहा होगा । संपूर्ण प्रतिमाको देखनेसे ऐसा लगता है कि यह किसी स्वतन्त्र मंदिरसे संबंधित न होकर किसी स्तम्भसे जुड़ी हुई, रही होगी। इसका प्रस्तर लाल है।
६१३, ६१४, ६१५, ६१६, ६१७, ६१८, ६१६, ६८६M३५,६६० M३५, ६६२M३५,६६३M३०, ६६४M३६, ६६५M२२, इन संख्याओं वाली समस्त मूर्तियाँ जैन हैं । स्थानाभावके कारण इनका कलात्मक विस्तृत परिचय दिया जाना संभव नहीं । उपर्युक्त प्रतिमाओंके और भी श्रमण-संस्कृतिसे संबंधित स्फुट अवशेष काफ़ी तादाद में वहाँ पड़े हुए हैं। उनमेंसे एक ऐसे सुन्दर अवशेषपर दृष्टि केन्द्रित हुई, जिसका उल्लेख किये बिना निबन्ध अधूरा ही रहेगी। मुझे यह अवशेष इसलिए बहुत पसंद आया कि इस प्रकारकी आकृतियाँ अन्यत्र कम देखनेको मिलती हैं। यह अवशेष एक दृष्टिसे अपने आपमें पूर्ण है, पर इसका स्वतन्त्र अस्तित्व भी संभव नहीं। चित्रमें आप देखेंगे तो प्रधानतः तीन तीर्थंकरोंकी मूर्तियाँ दृष्टिगोचर होंगी, जिनके मस्तकपर सुन्दर शिखर भी बने हुए हैं, जिनके अग्रभागमें एक-एक पद्मासनस्थ जैन-प्रतिमा उत्कीर्णित है । प्रधान तीनों प्रतिमाओंमें उभय ओर सात एवं पाँच फण युक्त पार्श्वनाथकी प्रतिमाएँ हैं, मध्यमें ऋषभदेव को। तीनोंके उभय ओर दो-दो कायोत्सर्ग मुद्रामें प्रतिमाएँ खुदी हैं। तीनों मूर्तियोंके मध्यवर्ती भागमें दायीं व बायीं क्रमशः अंबिका और चक्रेश्वरी अधिष्ठातृ देवियाँ, सायुध अवस्थित हैं । यहाँपर आश्चर्य तो इस
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