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प्रय
प्रयाग-संग्रहालयकी जैन-मूर्तियाँ २४३ भक्ति पूर्वक वन्दना करती हुई प्रतीत होती है। यद्यपि ऋषभदेव स्वामीकी अधिष्ठातृदेवी गरुड़वाहिनी चक्रेश्वरी है, अतः यहाँ पर उसीकी मूर्ति अपेक्षित थी, जब कि यहाँ अंबिका है । प्रायः बहुसंख्यक प्राचीन कई तीर्थकरोंकी ऐसी प्रतिमाएँ देखने में आयी हैं, जिनकी अधिष्ठातृ देवीके स्थानपर अंबिकाके ही दर्शन होते हैं, विशेषतः पार्श्वनाथ और ऋषभदेव आदिकी मूर्तियोंमें । यों तो अंबिका भगवान् नेमिनाथकी अधिष्ठातृ हैं। जैन-मूर्तिविधान शास्त्रमें इसके दो रूप मिलते हैं, परन्तु शिल्प स्थापत्यावशेषोंमें तो वह, अनेक ऐसे रूपोंमें व्यक्त हुई हैं कि उनके विभिन्न पहलुओंको पहचानना भी कहीं-कहीं कठिन हो जाता है।
जिन प्रतिमाकी चर्चा यहाँपर की जा रही है, उसके आसनका भाग इस रूपसे बना हुआ है मानो कोई सुन्दर चौकी ही हो, आसनके रूपमें वस्त्राकृति है। जिसपर वृषभका चिह्न है। और दो मकरोंके बीचमें खड़ा धर्मचक्र है । प्रतिमाके मुख के पश्चात् भागमें प्रभावली है, साधारण रेखाएँ भी हैं। उभय ओर पुष्पमाला लिये गगनविचरण करते हुए देववृन्द हैं, तदुपरि दंडयुक्त छत्र हैं। दायें भागमें एक हाथीका चिह्न है, बायीं ओर इन्द्र । छत्रके ऊपरका भाग बड़ा ही कलापूर्ण है। अशोक वृक्षकी पत्तियाँ
और दो हस्त ढोल बजा रहे हैं। छत्रके दोनों भागोंमें पद्मासनस्थ दो जिनमूर्तियाँ भी अंकित हैं। इतने लंबे विवेचन के बाद भी एक प्रश्न रह ही जाता है कि इसका निर्माणकाल क्या हो सकता है ? कलाकारने संवत्का कहींपर भी उल्लेख नहीं किया, अतः केवल अनुमानसे ही काम लेना पड़ रहा है। यह मूर्ति खजुराहोसे लाई गई है, प्रस्तर भी वहाँ के अन्य अवशेषों से मिलता-जुलता है । इस प्रकारकी अन्य प्रतिमाएँ देवगढ़में पायी गई हैं, जिनपर संवत् भी है । खासकर अंबिका और कुबेरकी प्रतिमाएँ इसके साथ संबंधित हैं, उनके अध्ययन के बाद कहा जा सकता है कि इसका रचनाकाल १ से ११ वीं शतीका मध्यभाग होना चाहिए, क्योंकि अलंकरणोंका विकास जैसा इसमें हुआ है, वैसा उन दिनों खजुराहो और त्रिपुरी-तेवरको सभी
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