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खण्डहरोंका वैभव
"गंगायमुनयोर्वेणी संगमे श्रीआदिकरमंडलम्” ( पृ० ८५ ) उन दिनों शीतलनाथका मन्दिर रहा होगा ।
प्रयागके अक्षयवटका सम्बन्ध भी जैनसंस्कृति से बताया जाता है । अन्निकाचार्यको यहीँपर केवलज्ञान हुआ था । देवताओंने प्रकृष्टरूपसे याग-पूजा आदि की, इसपर से प्रयाग नाम पड़ा ।' तब भी अक्षयवट था । इसी अक्षयवट के निम्न भागमें जिनेश्वर देवके चरण थे। इनकी यात्रा जैन मुनि श्री हंससोमने १६ वीं शताब्दी में की थी, वे लिखते हैं
तिणिकारण प्रयाग नाम ए लोक पसिद्धउ, पाय कमल पूजा करी मानव फल लीडउ,
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परन्तु मुनि श्री शीलविजय जी को छोड़कर अन्य यात्री मुनिवरोंने
चरणकमलके स्थान पर शिवलिंग देखा । यह अकृत्य किसने किया होगा ? इसकी सूचना भी मुनि श्री विजयसागर अपनी तीर्थमाला में इस प्रकार देते हैं ।
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संवत् सोलेडवाल लाड़मिथ्यातीअ राय कल्याण कुबुद्धिहुओए,
तिथि कीधो अन्याय शिवलिंग थापीअ
उथापी जिनपादुका ए
प्रा० ती० मा० ५४
"अतएव तत्तीर्थ 'प्रयाग' इति जगति प्रपथे । प्रकृष्टो यागः पूजा
अत्रेति प्रयागः इत्यन्वयः ।
ranas छे तिहाँ कने रे जेहनी जड पाताल, तासतले पगलां हुतारे, ऋषभजीनां सुविशाल,
पृ० ३
विविधतीर्थंकल्प, पृ० ६८
Aho! Shrutgyanam
प्रा० ती० मा०, पृ० ७६-७