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खण्डहरोंका वैभव ___ अब मैं उन प्रतिमाओंकी छानबीनमें लगा, जिनका सम्बन्ध जैनसंस्कृतिसे था । जो कुछ भी इन मूर्तियोंसे समझ सका, उसे यथामति लिपिबद्ध कर रहा हूँ।
नं० ४०८---प्रस्तुत प्रतिमा श्वेतपर पीलापन लिये हुए प्रस्तरपर उत्कीर्ण है, कहीं-कहीं पत्थर इस प्रकार खिर गया है कि भ्रम उत्पन्न होने लगता है कि यह प्रतिमा बुद्धदेवकी न हो। कारण उत्तरीय वस्त्राकृतिका आभास होने लगता है । पश्चात् भाग खंडित है। बायें भागमें खड्गासनस्थ एक प्रतिमा अवस्थित है, मस्तकपर सर्पाकृति (सप्तफण) खचित है। निम्न उभय भागमें, परिचारक परिचारिकाएँ स्पष्ट हैं। इसी प्रतिमाके अधोभागमें अधिष्ठातृ देवी अंकित हैं । चतुर्भुज शंख, चक्रादिसे कर अलंकृत है । जो चक्रेश्वरीकी प्रतिमा हैं। प्रधान प्रतिमाके निम्न भागमें भक्तगण और मकराकृतियाँ हैं । यद्यपि कलाकी दृष्टिसे इस संपूर्ण शिलोत्कीर्ण मूर्तिका कोई विशेष महत्त्व नहीं ।
नं० २५---यह प्रतिमा चुनारके समान पाषाणपर खुदी हुई है । गर्दन और दाहिना हाथ कुछ चरणोंकी उँगलियाँ एवं दाहिने घुटनेका कुछ हिस्सा खंडित है । इसके सामने एक वक्षस्थल पड़ा है, इसके दाहिने कंधेके पास दो खड्गासनस्थ जैनमूर्तियाँ हैं, इनसे स्पष्ट हो जाता है कि ये जैनप्रतिमा ही है, कारण कि खंडित स्कन्ध प्रदेशपर केशावलिके चिह्न स्पष्ट दृष्टिगोचर हो रहे हैं। अतः यह प्रतिमा निःसंदेह भगवान् ऋषभदेव की है, जो श्रमण-संस्कृतिके आदि प्रतिष्ठापक थे। इसके समीप ही एक स्वतन्त्र स्तंभपर नग्न चतुर्मुख मूर्तियाँ हैं।
. उपर्युक्त प्रतिमाओंका संग्रह जहाँपर अवस्थित है, वहाँपर एक प्रतिमा हल्के पोले पाषाणपर खुदी हुई है। पद्मासनस्थ है। ३२||| X २३ है । उभय ओर चामरधारी परिचारिक तथा निम्न भागमें दायें-बायें क्रमशः स्त्री-पुरुषकी मूर्ति इस प्रकार अंकित है मानो श्रद्धाञ्जलि समर्पित कर रहे हों। बीचमें मकराकृति तथा अर्धधर्मचक्र है। प्रधान जैनप्रतिमाके
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