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खण्डहरोंका वैभव हैं, और मध्यमें एक विशालकाय प्रतिमा है जो इन सबमें प्रधान है- इस प्रकार २५ प्रतिमाएँ होती हैं । चतुर्विंशतिका-पट्ट मैंने अन्यत्र भी देखे हैं, पर उनमें मध्य प्रतिमाको लेकर २४ मूर्तियाँ होती हैं, जब इसमें २५ हैं । अर्थात् ऋषभदेवकी दो मूर्तियाँ हैं। लोग कहा करते हैं कि शरीरका सारा सौंदर्य मुखाकृतिपर निर्भर होता है । इस पर यह पंक्ति खूब चरितार्थ होती है । प्रतिमाओंका अंग-विन्यास, स्वाभाविक है, कहींपर भी कृत्रिमता जैसी कोई चीज नहीं है । उँगलियाँ और मुखपर कितना प्राकृतिक प्रभाव है, यह देखकर दाँतों तले उँगली दबानी पड़ती है । मुखमंडलपर अपूर्व शांति और आध्यात्मिकताके स्थायीभाव तथा ओठोंपर स्मित-हास्य फड़क रहा है । सौन्दर्य पार्थिव जगत्का विषय होते हुए भी यहाँ कलाकारकी कल्पना शक्तिने उनकी आध्यात्मिक झलक करा दी है।
प्रतिमाके स्कन्धप्रदेशपर विराजित केशावलि' बहुत ही सुन्दर लग रही
'दशम शतीके पूर्वको जिन-प्रतिमाओंमें प्रायः लांछन नहीं मिलते । अतः किस तीर्थकरकी कौन मूर्ति है ? यह कहना कठिन हो जाता है । ऋषभदेवकी मूर्तिकी पहचान यों तो लांछनसे की जाती है, परन्तु प्राचीन मूर्तियोंमें तो केशावलि ही परिचय प्राप्त करनेका प्रधान साधन है। सूत्र नियुक्ति और त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र आदि ग्रंथोंमें केशावलिका आवश्यक कारण इन शब्दों में स्पष्ट बतलाया गया है।
"तेसिं पंचमुटिठओ लोओ सयमेव । भगवओ पुण सक्कवयणेण कणगावदाए सरीरे जड़ाओ अंजणरेहाओ इव रेहंतीओ उवलभइऊण ठिाओ तेण चउमुट्ठिओ लोओ।"-आ० नि० पृ० १६१ ।
-उनका (तीर्थंकरका) स्वयमेव पंचमुष्टिका लोच था, पर भगवान् ऋषभदेवका इंद्रके वचनसे, उनके कनकवत् उज्ज्वल शरीरपर, अंजन रेखाके समान जटाएँ बिना लुंचित किये ही सुशोभित रहीं, अतः उनका चतुर्मुष्टिका लोच है।
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