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प्रयाग-संग्रहालयकी जैन-मूर्तियाँ
२३५ है, चरणके निम्न भागमें वृषभका चिह्न भी स्पष्ट है । अतः यह मूर्ति ऋषभदेवकी है । दायीं ओर अधोभागमें दम्पति युगल है। बायीं ओर मगर तथा धूप-दीपक आदि पूजनकी सामग्री पड़ी हुई है। इस प्रकारको पूजन सामग्री बौद्ध-प्रतिमाओंमें उत्कीर्ण रहती है। __ २४ तीर्थंकरोंकी भिन्न-भिन्न मूर्तियाँ उपर्युक्त शिलामें खुदी हैं। उन सभी पर वृषभ, हस्ती आदि अपने-अपने चिह्न भी बने हुए हैं । मध्यवर्ती प्रतिमाके उभय ओर अवस्थित चामरधारियोंकी भावभंगिमा सुकुमारताकी परिचायिका है। ऊपरके भागमें प्रभामण्डल, पुष्पमाला और ध्वनि आदिके चिह्न हैं । इस ललित प्रतिमाका निर्माणकाल १३ वीं शतीके बादका नहीं हो सकता । इस शैलीकी एक प्रतिमा मैंने राजगृह निवासी बाबू कन्हैयालालजीके संग्रहमें देखी थी, जिसका चित्र ज्ञानोदयके प्रथमांकमें प्रकाशित हो चुका है। ___ प्रवेशद्वारके बायीं ओर एक शिल्पाकृति कुछ विचित्र-सी लगती है जो श्याम पाषाणपर उत्कीर्ण है, सापेक्षतः बहुत प्राचीन नहीं है । अग्रभागमें गजराज हैं । एक पद्मासनस्थ एवं तदुभय भागमें दो खड्गासनस्थ जैनमूर्तियाँ हैं। ऊपरके भागमें सुन्दर नागर शैलीका शिखर अंकित है । निम्न भागमें
"प्रतीच्छति स्म सौधर्माधिपतिः कुन्तलान् प्रभोः । वस्त्राञ्चले वर्णान्तरतन्तुमण्डनकारिणः ॥६॥ मुष्टिना पञ्चमेनाऽथ शेषान् केशान् जगत्पतिः । समुच्चिखीन्नषन्नेवं ययाचे नमुचिद्विषा ॥६६॥ नाथ ! त्वदंसयोः स्वर्णरुचोमरकतोपमा । वातानीता विभात्येषा तदास्तां केशवल्लरी ॥७॥ तथैव धारयामास तामीशः केशवल्लरीम् । याञ्चामेकान्तभक्तानां स्वामिनः खण्डयन्ति न ॥७१॥"
-त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र सर्ग ३, पृष्ठ ७० ।
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