________________
प्रयाग-संग्रहालयको जैन-मूर्तियाँ २३३ मस्तकपर सुन्दर छत्र एवं तदुपरि वाजिन्त्र, पुष्पवृष्टि हो रही है। पाषाण कहाँका है, यह तो कहना ज़रा कठिन है, पर चुनारके पाषाणसे मिलता जुलता है । इस प्रतिमाका संबंध श्रमण संस्कृतिकी एक धारा जैनसंस्कृतिसे जोड़ा जाय या बौद्धसंस्कृतिसे, यह एक ऐसा प्रश्न है, जिसपर गंभीरतापूर्वक विचार करना आवश्यक जान पड़ता है । बात यह है कि जितनी भी प्राचीन जैनमूर्तियाँ उपलब्ध हुई हैं उनमेंसे कुछ मूर्तियोंपर तीर्थंकरोंके चिह्न एवं निम्न उभय भागमें अधिष्ठाता, अधिष्ठातृदेवीकी प्रतिमाएँ भी अंकित रहती हैं। इस प्रतिमामें लांछनके स्थानपर तो एक स्त्री खुदी हुई है । इस प्रकारकी शायद यह प्रथम प्रतिमा है। साथ ही साथ पूर्ण या अर्धमृगयुक्त धर्मचक्र भी मिलता है । कहीं-कहीं अधिष्ठाताके स्थानपर गृहस्थ दम्पतिका चित्रण भी दिखलाई पड़ता है। अब प्रश्न इतना ही है कि यदि यह बौद्ध मूर्ति होती तो वस्त्राकृति अवश्य स्पष्ट होती, जिसका यहाँपर सर्वथा अभाव है । हाँ, श्रमण संस्कृतिकी उभय धाराओंका यदि समुचित ज्ञान न हो तो भ्रमकी यहाँपर काफी गुंजाइश है । मैं तो इसकी विलक्षणतापर ही मुग्ध हो गया। इसके अंग-प्रत्यंग जानबूझकर ही तोड़ दिये गये हैं। इसपर निर्माणकाल सूचक कोई लिपि वगैरह नहीं है । प्रतिमाके मुखके भावोंका प्रश्न है वे ११ वीं शतीके बादके तो अवश्य ही नहीं हैं, कारण प्रतिमाओंके समय-निर्माणमें उनकी मुखमुद्राका उपयोग किया जाता है, खासकर जैनप्रतिमाओंमें । __ संग्रहालयके भवनमें प्रवेश करते समय बायें हायपर हलके हरे रंगके आकर्षक प्रस्तरपर एक खड्गासनमें जैनमूर्ति अंकित है । ३६४ १८ । यह मूर्ति न जाने कलाकारने कैसे समयमें बनाई होगी। हर प्रेक्षकका ध्यान आकर्षित कर लेती है, परन्तु चरण निर्माणमें कलाकार पूर्णतः असफल
रहा।
__ इसे एक प्रतिमा न कहकर यदि चतुर्विंशतिका पट्ट कहें तो अधिक अच्छा होगा, क्योंकि उभय भागमें दोनोंकी ६ कोटिमें १२ लघुतम प्रतिमाएँ
१६
Aho! Shrutgyanam