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प्रयाग-संग्रहालयकी जैन-मूर्तियाँ . २७ जूनको घूमते हुए हम लोग ऐसे स्थानमें पहुँच गये, जहाँपर भारतीय संस्कृतिसे सम्बन्धित ध्वंसावशेषोंका अद्भुत संग्रह था। वहाँपर प्राचीन भारतीय जनजीवन के तत्त्वोंका साक्षात्कार हुआ और उन प्रतिभासम्पन्न अमर शिल्पाचार्यों के प्रति आदर उत्पन्न हुआ, जिन्होंने अपने श्रमसे, अर्थकी तनिक भी चिन्ता न कर, संस्कृतिके व्यावहारिक रूप सभ्यता को स्थायी रूप दिया । कहीं ललित-गति-गामिनी परम सुन्दरियाँ मर्यादित सौन्दर्यको लिये, प्रस्तरावशेषोंमें इस प्रकार नृत्य कर रही थीं, मानो अभी बोल पड़ेंगी। उनकी भावमुद्रा, उनका शारीरिक गठन, उनका मृदु हात्य और अङ्गोंका मोड़ ऐसा लगता था कि अभी मुसकुरा देंगी। कहीं ऐसे भी अवशेष दिखे जिनके मुखपर अपूर्व सौन्दर्य और आध्यात्मिक शान्तिके भाव उमड़ रहे थे।
सचमुच पत्थरोंकी दुनिया भी अजीब है, जहाँ कलाकार वाणी विहीन जीवन-यापन करनेवालोंके साथ एकाकार हो जाता है। अतीतकी स्वर्णिम झाँकियाँ, उन्नत जीवनकी ओर उत्प्रेरित करती हैं । कला केवल वस्तु तत्त्वके तीव्र आकर्षणपर ही सीमित नहीं, अपितु वह सम्पूर्ण राष्ट्रीय जीवनके नैतिक स्तरपर परिवर्तनकर नूतन निर्माणार्थ मार्ग प्रशस्त करती है। स्वतन्त्र भारतमें प्रस्तरपरसे जो ज्ञानकी धाराएँ बहती हैं, उन्हें झेलना पड़ेगा। उनसे हमें चेतना मिलेगी। हमारे नवजीवनमें स्फूर्ति आयेगी। उस दिन तो मैंने सरसरी तौरपर खंडितावशेर्षोंसे भेंटकर विदा ली। इसलिए नहीं कि उनसे प्रेम नहीं था, परन्तु इसलिए कि एक-एककी भिन्नभिन्न गौरवगाथा सुननेका अवकाश नहीं था।
दूसरे दिन प्रातःकाल ही में अपनी पुरातत्त्व गवेषण-विषयक सामग्री लेकर संग्रहालयमें पहुँचा। वहाँपर इन प्रस्तरोंको एक स्थानपर एकत्र करनेवाले रायबहादुर श्री ब्रजमोहनजी व्यास उपस्थित थे। आपने बड़े मनोयोग पूर्वक संग्रहालयके सभी विभागोंका निरीक्षण करवाया-विशेषकर जैन-विभागका ।
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