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खण्डहरोंका वैभव
परिवर्तनकाल प्रकृत स्थानपर विवक्षित कालके आगेका है। अतः इसपर विचार करना यहाँपर आवश्यक नहीं जान पड़ता।
प्रासङ्गिक रूपसे यहाँपर सूचित कर देना परमावश्यक जान पड़ता है कि खड़ी और बैठी जैनमूर्तियोंके अतिरिक्त चतुर्मुखी मूर्तियाँ भी मिलती हैं। एवं कहीं-कहीं एक ही शिलापट्टपर चौबीसों तीर्थंकरोंकी मूर्तियाँ सामूहिक रूपसे उपलब्ध होती हैं। यहाँपर मूर्तिकलाके अभ्यासियोंको स्मरण रखना चाहिए कि जिस प्रकार जिनमूर्तियाँ बनती थी, उसी प्रकार जिनभगवान् की अधिष्ठातृदेवियोंकी भी मूर्तियाँ स्वतन्त्र रूपसे काफ़ी बना करती थीं। इनके स्वतन्त्र परिकर पाये जाते हैं। ____ जैन-मूर्ति-निर्माण-कला और उसके क्रमिक विकासको समझने के लिए उपर्युक्त पंक्तियाँ मेरे ख्यालसे काफ़ी हैं। यह विवेच्य धारा १२ वीं शती तक ही बही है। कारण कि इसके बाद जैनमूर्ति-निर्माण-कालमें कला नहीं रह गयी है। कुशल शिल्पियोंकी परम्परामें वैसे व्यक्ति इन दिनों नहीं रह गये थे, जो अपने औजारों द्वारा पाषाणमें प्राणका सञ्चार कर सकें। उनके पास हृदय न था, केवल मस्तिष्क और हाथ ही काम कर रहे थे । भवनस्थित मूर्तियोंका परिचय
वर्षोंसे सुन रखा था कि प्रयाग नगरसभाके संग्रहालयमें श्रमण-संस्कृति से सम्बन्धित पर्याप्त मूर्तियाँ सुरक्षित हैं। काशीमें जब मैं फरवरीमें आया तभीसे विचार हो रहा था कि एक बार प्रयाग जाकर प्रत्यक्ष अनुभव किया जाय, परन्तु मुझ जैसे सर्वथा पाद-विहारीके लिए थी तो एक समस्या हो । अन्तमें मैंने कड़कड़ाती धूपमें १०-६-४६ को प्रयागके लिए प्रस्थान किया । ग्रीष्मके कारण मार्गमें कठिनाइयों की कमी नहीं थी, परन्तु उत्साह भी इतना था कि ग्रीष्मकाल हमपर अधिकार न जमा सका। प्रयाग जाने का एक लोभ यह भी था कि निकटवर्ती कौशाम्बीकी भी यात्रा हो जायगी, परन्तु मनुष्यका सभी चिन्तन, सदैव साकार नहीं होता।
Aho! Shrutgyanam