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खण्डहरोंका वैभव
चक्रके स्थानपर दो हस्ती, इस प्रकार बताये गये हैं, मानो शिर और प्रतिमाओंको वहन किये हुए हैं । इस प्रकारकी शिल्पाकृति अन्यत्र देखनेमें नहीं आयी, अनुमानतः यह रथयात्राका प्रतीक है। . प्रवेशद्वारके सम्मुख २१४ १५ इंचकी शिलापर एक-एक पंक्ति में छः छ इस प्रकार पंक्तियोंमें १८ मूर्तियाँ एवं चतुर्थ पंक्तिमें छः प्रतिमाएँ है । ५ खड्गासन और एक पद्मासन । मुखका भाग खंडित है ।
उपर्युक्त पंक्तियोंमें जिन मूर्तियोंका परिचय दिया गया है, वे सभी नगर सभा-संग्रहालयकी गैलरीमें रखी गयी हैं, कुछ एक ऐसी भी जैनमूर्तियाँ हैं, जिनका विशेष महत्त्व न रहने के कारण परिचय नहीं दिया गया है। बाहरकी प्रतिमाएँ
नगरसभा-संग्रहालयके उद्यानमें दक्षिणकी ओर प्रवेश करते समय उन दो विशाल जैन-मूर्तियोंपर दृष्टि केन्द्रित हो जाती है जो दाय-बायें रखी गयी है । यद्यपि दोनों प्रतिमाएँ निम्न सांप्रदायिक मनोवृत्तिकी शिकार हो चुकी हैं तथापि उनका शारीरिक गढ़न एवं सौंदर्य आज भी कलाविदोंको खींचे बिना नहीं रहता । आकार-प्रकारमें प्रायः दोनों समान प्रतीत होती हैं, पर निर्माण शैली और रचनाकालमें बड़ा अन्तर है । बायीं ओरकी मूर्तिका मुख यद्यपि खंडित है तथापि उसका शेष शारीरिक गठन और विन्यास स्वाभाविक है । उदराकृति तो सर्वथा प्राकृतिक प्रतीत होती है । मूल प्रतिमाके उभय ओर चामरधारी परिचायक हैं, जिनके खड़े रहनेका ढंग और कटि प्रदेशपर पड़ी हुई उँगलियाँ रसवृत्ति उत्पन्न करती हैं। दायें परिचारकके निम्न भागमें एक स्त्री आकृति एवं तदधोभागमें एक पुरुष बैठा है और सम्मुख एक स्त्री अंजलिबद्ध खड़ी है। बायें परिचारकका भाग खण्डित हो चुका है। केवल स्त्रीका धड़ हाथमें कमल लिये दिखाई देता है । मूल प्रतिमाका आसन कमलको पंखुड़ियोंसे सुशोभित हो रहा है । निम्न भागमें
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