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प्रयाग संग्रहालयकी जैन-मूर्तियाँ
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भागमें मूर्ति बनानेवाले दम्पति तथा यक्ष-यक्षिणी धर्मचक्र एवं व्याल आदि खुदे होते हैं । यह तो सामान्य परिकर है । यद्यपि कलाकारको इसमें वैविध्य लाने में स्थान कम रहता है । इस शैलीकी मूर्तियाँ प्रस्तर और धातु को मिलती हैं । प्रस्तरकी अपेक्षा धातुकी मूर्तियाँ सौन्दर्य की दृष्टिसे अधिक सफल जान पड़ती हैं । परिकरका दूसरा रूप इस प्रकार पाया जाता है । मूल प्रतिमाके दोनों ओर चमरधारी, इनके पृष्ठ भागमें हस्ती या सिंहाकृति तदुपरि पुष्पमालाएँ लिये देव - देवियाँ - कहींपर समूह कहींपर एकाकीमस्तकपर अशोककी पत्तियाँ, कहीं दण्डयुक्त छत्र, कहीं दण्ड रहित, उसके ऊपर दो हाथी तदुपरि मध्यभाग में कहीं-कहीं ध्यानस्थ जिन-मूर्ति प्रभावली, कहीं कमलको पंखुड़ियाँ विभिन्न रेखाओंवाली या कहीं सादा । मूर्तिके निम्न भागमें कहीं कमलासन, कहीं स्निग्ध प्रस्तर, निम्न भागमें ग्राम, धर्मचक्र अधिष्ठात्री एवं अधिष्ठाता नवग्रह, कहीं कुबेर, कहीं भक्तगण पूजोपकरण, कमलदण्ड उत्कीर्णित मिलते हैं । सम्भव है कि १२ वीं, १३वीं शतीतक के परिकरोंमें कुछ और भी परिवर्तन मिलते हों । कुछ ऐसे भी परिकर युक्त. अवशेष मिले हैं, जिनमें तीर्थंकरके पञ्चकल्याणक और उनके जीवनका क्रमिक विकास भी पाया जाता है। बौद्ध-मूर्तियों में भी बुद्धदेव के जीवनका क्रमिक विकास ध्यानस्थ मुद्रावली मूर्तियों में दृष्टिगत होता है । राजगृही और पटना संग्रहालय में इस प्रकारको मूर्तियाँ देखने में आती हैं । परिकर युक्त मूर्ति ही जन-साधारणके लिए अधिक आकर्षणका कारण उपस्थित करती हैं और परिकरवाली मूर्तियों में ही कलाकारको भी अपना कौशल प्रदर्शित करनेका अवसर मिलता है । यद्यपि परिकरका भी प्रमाण है कि मुख्य मूर्ति से ड्योढ़ा होना चाहिए। पर जिन मूर्तियों की चर्चा यहाँपर की जा रही है, उन मूर्तियों के निर्माणके काफी वर्ष बादके ये शिल्पशास्त्रीय प्रमाण हैं । अतः उपर्युक्त नियमका सार्वत्रिक पालन कम ही हुआ है। परिकरका यों तो आगे चलकर इतना विकास हो गया कि उसमें समयानुसार जरूरत से ज्यादा देव-देवी और हंसोंकी पंक्तियाँ भी सम्मिलित हो गयीं, परन्तु यह
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