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प्रयाग - संग्रहालयकी जैन- मूत्तियाँ
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प्रस्तर मूर्तियाँ लेखयुक्त अत्यल्प उपलब्ध हुई हैं, परन्तु बिना लेखवाली भी कुछ एक मूर्तियाँ मगधमें पाई जाती हैं जिनको गुप्तकालीन मूर्तियों की कोटिमें सम्मिलित किया जा सकता है। राजगृह के तृतीय पहाड़पर फयुक्त जो पार्श्वनाथकी प्रतिमा है, उसका सिंहासन एवं मुख-निर्माण सर्वथा गुप्तकला के अनुरूप है । इसी पर्वतपर एक ओर अष्टप्रतिहार्य युक्त कमलासन स्थित प्रतिमा है । एवं मुँगेर जिले में क्षत्रियकुंड पर्वतवाले मन्दिर में अतीव शोभनीय, उपर्युक्त शैलीके सर्वथा अनुरूप एक बिम्ब पाया जाता है, जिनमें से तीसरीको छोड़कर, उभय मूर्तियोंको गुप्तकालीन कह सकते हैं । राजगृह में पंचम पर्वतपर एक ध्वस्त जैनमन्दिर के अवशेष मिले हैं। बहुत-सी इधर-उधर प्राचीन जैनमूर्तियाँ भी बिखरी पड़ी हैं। इनमेंसे नेमिनाथवाली जैनप्रतिमाको निस्संदेह गुप्तकालीन मूर्ति कह सकते हैं ।
भिलषित कालीन प्रतिमाओंके भामण्डल विविध रेखाओंसे अंकित रहा करते थे, एवं प्रभावलीके चारोंओर अग्निकी लपटें बतायी गयी थीं । इसे बौद्ध मूर्तिकलाकी जैनमूर्ति कलाको देन मान लें तो अत्युक्ति न होगी । जैन-बौद्ध मूर्तियों के अध्ययनसे विदित हुआ कि प्रधान मुद्राको छोड़कर परिकरके अलंकरणोंका पारस्परिक बहुत प्रभाव पड़ा है । उदाहरणार्थं जिनमूर्तियों में जो वाजिन्त्र - देव - दुन्दुभी पाये जाते हैं, वे अष्टप्रतिहार्य के ही अन हैं । ये ही चिह्न बौद्ध-मूर्तियों में भी विकसित हुए हैं । यह स्पष्ट जैन प्रभाव है । बुद्धदेवकी पद्मासनस्थ मूर्तियाँ भी, जैन तीर्थंकरकी मुद्राका अनुसरण है। बौद्ध-मूर्तियोंके बाहरी परिकरादि उपकरणोंका प्रभाव गुप्तकालीन और तदुत्तरवर्ती मूर्तियों में पाया जाता है । गुप्तोंके पूर्वकी जैन-मूर्तियोंके सिंहासन के स्थानपर एक चौकी-जैसा चिह्न
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"राजगृह में सोनभंडारकी दीवालपर जैनमूर्ति व धर्मचक्र खुदा हुआ है । विशेष के लिए देखे "राजगृह में प्राचीन जैन सामग्री । "
- जैन भारती, वर्ष १२, अंक २ ।
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