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मध्यप्रदेशका जैन-पुरातत्त्व
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भी किसी अवशेषके ऊपर बना प्रतीत होता है । जागीरदारीके प्रबन्धक बाबू तारासिंहजीने इसकी सूचना नागपुर अद्भुतालयके प्रधानको दी । जाँच करनेपर कुछ ताम्र-मुद्राएँ प्राप्त हुई, पर खेद है कि पुरातत्त्व विभागके उस अफसरने हफ्तोंतक ज़मींदारके आतिथ्यसे लाभ उठाकर भी यथार्थतः अपने कर्त्तव्यका लेशमात्र भी पालन न किया । यदि मंदिरके नीचे और खुदाई की जाती—जैसा कि ज़मीदार साहब वैसा करवानेको तय्यार थेतो कुछ नवीन तथ्य प्रकाशमें आता । जितना भाग खोदा गया था, उसमें आधे दर्जनसे अधिक जैन-मूर्तियाँ प्राप्त हुई थीं। कुछ एक तो नींवमें पुनः भर दी गई । केवल एक प्रतिमा नमूनेके लिए दुर्गद्वारके अग्रभागमें विराजमान है। समीप ही दशावतारी विष्णुकी अत्यन्त प्रभावोत्पादक मूर्ति अवस्थित है। बाबू तारासिंहसे पता लगा कि मैंने जिस जगहपर खुदाई-कार्य किया था, वहाँ भी जैन मूर्तियाँ निकली थीं। इसमें कोई संशय नहीं कि कामठाके लोग शिल्प-कलाके उन्नायक रहे थे।
बालाघाट अपने ज़िलेका प्रमुख स्थान है। इसका इतिहास वाकाटक काल तक जाता है । सरकारी अफ़सरोंके आमोद-प्रमोदके लिए एक क्लब बना हुआ है। ठीक इसके पीछे एवं न्यायालयवाले मार्गपर छत-विहीन साधारण कमानके सहारे कुछ जैन-मूर्तियाँ टिकी हुई हैं। जिस रूपमें इन्हें मैंने उन्नीस सौ बयालीसके पराधीन भारतमें देखा था, ठीक उसी रूपमें उन्नीस सौ बावन अप्रैल के स्वाधीन भारतमें भी देखा । बड़ा आश्चर्य है कि इतने वर्षों के बाद भी हमारे शिक्षित-दीक्षित अफसर व मंत्रियोंका ध्यान इस ओर न जाने क्यों नहीं गया । अब भी जाय तो कम-से-कम नष्ट होनेवाली कलात्मक सम्पत्ति तो बचाई जा सकती है । ____ डोंगरगढ़----का नाम अत्यन्त सार्थक है। सचमुच यह पहाड़ियोंका दुर्गम दुर्ग ही है । जब इस नामसे अभिषिक्त किया गया होगा, उस समय इसकी दुर्गमता कितनी दुर्बोध रही होगी, चतुर्दिक सघन अटवियोंसे यह
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