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महाकोसलका जैन पुरातत्त्व
२०१ प्रासंगिक रूपसे एक बातका उल्लेख करना आवश्यक जान पड़ता है कि महाकोसलके कलाकार बहुसंख्यक मूर्तियोंके परिकरका निर्माण इस प्रकार करते थे कि उसमें संपूर्ण मन्दिरकी अभिव्यक्ति हो सके । शिखर, आमलक और कलशकी रेखाएँ स्पष्ट खोदी जाती थीं। जैनमूर्तिकला भी इस व्यापक प्रभावसे अछूती न रह सकी । यही कारण है कि मन्दिरके आगे लगाये जानेवाले तोरणांतर्गत मूर्तियोंमें भी उपर्युक्त भावोंका व्यक्तीकरण बड़ी सफलताके साथ हुआ है । यह विशुद्ध महाकोसलीय रूप जान पड़ता है । सिंहासन शब्द सर्वत्र प्रसिद्ध है, परन्तु महाकोसलमें वह इतना व्यापक मूर्तरूप धारण कर चुका है कि प्रत्येक मूर्ति के बैठक स्थानके नीचे सिंहकी
आकृति अवश्यमेव मिलेगी ही। .. यों तो यक्षिणियोंकी प्रतिमाएँ परिकरमें सर्वत्र ही दृष्टिगोचर होती हैं, परन्तु महाकोसल प्रान्तमें न केवल स्वतन्त्र विविध भावोंको लिये हुए यक्षिणियोंकी मूर्तियाँ निर्मित ही होती थीं, अपितु इनके स्वतन्त्र मंदिर भी बना करते थे । लौकिक आवश्यकताओंकी पूर्ति के लिए जैन-अजैन जनता मनौती भी किया करती थी। ऐसा एक मंदिर कटनी तहसील स्थित बिलहरी ग्रामके विशाल जलाशयपर बना हुआ है। मंदिर अभिनव जान पड़ता है, परन्तु गर्भगृहस्थित चक्रेश्वरीकी मूर्ति १२ वीं शतीके बादकी नहीं है । मस्तकपर भगवान् ऋषभदेवकी प्रतिमा विराजमान है । प्रथम तीर्थंकरकी अधिष्ठात्री देवीका यह मंदिर आज अजैनोंकी खैरमाई या खैरदैय्या बनी हुई है । इसी प्रकार अंबिका और पद्मावतीकी प्रतिमाएँ भी मिलती हैं। इनके मस्तकपर क्रमशः नेमिनाथ और पार्श्वनाथके प्रतीक
खण्डित मस्तक
उपर्युक्त पंक्तियोंमें अखंडित या कम खंडित मूर्तियोंपर विचार किया गया है। मुझे अपने अन्वेषणमें केवल त्रिपुरीसे ही दो दर्जनसे अधिक
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