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खण्डहरोंका वैभव उतना स्पष्ट है । यह संवत् विक्रम संवत् नहीं बल्कि कलचुरि संवत् है । जिसका प्रयोग कलचुरि कालीन महाकोसलमें होना अति साधारण और स्वाभाविक है । कलचुरि संवत् ईस्वी सन् २४८ में प्रारम्भ हुआ जो ठीक उपरोक्त लिपिका ही समर्थन करती है। ___ एक बात और; प्रस्तुत प्रतिमाको ऋषभदेवकी प्रतिमा माननेके दो कारण हैं । आसनके अधोभागमें वृषभ अर्थात् बैलका चिह्न स्पष्ट बना हुआ है । दायें-बायें गोमुख यक्ष तथा चक्रेश्वरी देवीको प्रतिमाएँ भी खुदी हैं । ये प्रतिमाएँ ऋषभदेवके अधिष्ठाता एवं अधिष्ठात्री हैं। यह प्रतिमा त्रिपुरीसे ही प्राप्त की गई हैं।
अध सिंहासन
इस सिंहासनका विस्तार १६"x१२" है । बायें हाथपर ह" ४८" विस्तारवाला एक बड़ा ही सुन्दर आसनपर स्थित रूमालका छोर बना हुआ है । इस रूमालके डिज़ाइनकी सुन्दरता देखते ही बनती है । उसका वर्णन कर सकना एकदम असम्भव है । वर्तमान युगमें कपड़ोंपर विशेषतः साड़ीके किनारोंपर जैसे उलझे हुए मनोहरतम Symmetrical डिज़ाइन बने रहते हैं वे भी इस डिज़ाइनके सामने मात खाते हैं । रूमालको कमसे-कम चौड़ाई जो निम्न भागमें है वह ५१" है । निस्सन्देह इस रूमाल. के ऊपर आसन रहा होगा और उस आसनके ऊपर किसी देवताकी मूर्ति स्थापित रही होगी। ___रूमालके दायीं ओर सिंहकी मूर्ति है, जिसके अगले पाँव और पंजे टूट चुके हैं । सिंह जान पड़ता है आसनके नीचे आसीन था। सिंहको अयाल कलाकी दृष्टि से खूब ही सुन्दर है, किन्तु जो स्वाभाविक अस्तव्यस्तता उसमें होनी चाहिए, वह भी नहीं है बल्कि कृत्रिमता बड़ी सुघड़ है। वही हाल सिंहकी मूछोंका भी है । वे सुन्दर तो हैं ही पर उनकी तरह स्पष्टतः कृत्रिम हैं । आँखों और मूछोंके बीचकी पिछले बायें पंजेके सामने एक सुन्दर
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