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महाकोसलका जैन-पुरातत्त्व
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सयक्ष नेमिनाथ
१४"४१४" प्रस्तुत शिलाखंडपर उत्कीर्णित प्रतिमाका कटिप्रदेशसे निम्न भाग नहीं है। अवशिष्ट भागसे भी प्रतिमाका परिचय भली भाँति मिल जाता है । दायीं ओर पुरुष एवं बायीं ओर स्त्री, मध्यमें एक वृक्षकी डालपर धर्मचक्रके समान गोलाकार आकृति अंकित है। दम्पति समुचित आभूषणोंसे विभूषित है । मुग्ध मुद्रामें स्वाभाविक सौंदर्य के साथ सजीवता परिलक्षित होती है । इस खंडित भागके सुव्यवस्थित अंगोपांगसे मूर्तिकी सफल कल्पना हो आती है। मस्तकपर दो पंखुड़ियाँ आम्र वृक्षकी दिखलाई पड़ती हैं । तदुपरि चौकीनुमा आसनपर जिनमूर्ति विराजमान है। दोनों
ओर खड्गासनस्थ जिन प्रतिमाओंके बाद उभय पावके छोरपर पद्मासनस्थ जिन मूर्तियाँ अंकित हैं। सभी जिन-मूर्तियोंके कानके निकटवर्ती दोनों ओर पत्तियाँ हैं । संभव है ये पत्तियाँ अशोक वृक्षकी हों, कारण कि अष्टप्रतिहार्यमें अशोकवृक्ष भी है।
इस प्रकारको प्रतिमाएँ विन्ध्यप्रान्त एवं महाकोसलके भूभागमें पर्याप्त संख्यामें उपलब्ध होती हैं। विद्वानोंमें इसपर मतभेद भी काफी पाया जाता है। विशेषकर जैन मूर्तिविधान शास्त्रसे अपरिचित अन्वेषकोंने इसपर कई कल्पनाएँ कर डाली हैं । परन्तु मध्यप्रान्तके एक विद्वान्की कल्पना है कि अंबिका और गोमेध यक्ष क्रमशः अशोककी पुत्री संघमित्रा एवं पुत्र महेन्द्र हैं । आम्र वृक्षको बोधि वृक्ष मान लिया गया है, परन्तु यह कल्पना पूर्व कल्पनाओंसे अधिक अयौक्तिक ही नहीं हास्यास्पद भी है। भगवान् नेमिनाथकी मूर्तिको तो भूल ही गये । त्रिपुरीके इतिहासमें इसका चित्र प्रकाशित है । इस चित्रपरसे मुझे भी यह भ्रम हुआ था, पर जब मूर्तिका साक्षात्कार हुआ एवं एक ही शैलीकी दर्जनों प्रतिमाएँ विभिन्न संग्रहालयोंमें देखीं, तब मैं इस निष्कर्षपर पहुँचा कि उपर्युक्त प्रतिमा यक्ष-यक्षिणी-युक्त भगवान् नेमिनाथकी है । जैन-मूर्तिविधान-शास्त्रोंसे भी इस बातका समर्थन
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