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महाकोसलका जैन-पुरातत्त्व
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मातंग और यक्षिणी सिद्धाईका होनी चाहिए। यक्ष हाथीपर आरूढ़ मस्तकपर धर्मचक्रको धारण करनेवाला बनाया जाता है। यक्षिणी दायें हाथमें वरदान एवं बायें हाथमें पुस्तकको धारण करनेवाली, सिंहपर बैठनेवाली वर्णित है। प्रस्तुत मूर्तिमें खुदी हुई मूर्तियोंमें उपरिवर्णित रूप बिल्कुल मेल नहीं खाता । यक्ष अपने दोनों पैर मिलाये दोनों हाथ दोनों घुटनोंपर थामे बैठा है । तोंद काफ़ी फूली हुई है। यक्षिणीके विषयमें स्पष्टतः असम्भव इसलिए है कि उसके अंगोपांग खंडित हैं। हमारा तात्पर्य यही है कि शिल्पशास्त्रों में वर्णित स्वरूप कलावशेषोंमें भिन्न-भिन्न रूपमें दृष्टिगोचर होता है।
प्रस्तुत तीर्थकरकी प्रतिमाका आसपासका भाग ऐसा लगता है मानो वह अन्य प्रतिमाओंसे सम्बन्धित होगी; कारण कि जुड़ाव सूचक पहियोंका उतार-चढ़ाव स्पष्ट परिलक्षित होता है । हमारी इस कल्पनाके पीछे एक
और तर्क है, वह यह कि इसी साइज़की इसी ढंग एवं प्रस्तरकी एक प्रतिमा अंजलिबद्ध में रायबहादुर हीरालालजीके संग्रह, कटनीमें देखी थी। वे उस प्रतिमाको बिलहरीके उसी स्थानसे लाये थे जहाँसे मैंने इसे प्राप्त किया ।
उपसंहार
उपर्युक्त पंक्तियोंसे सिद्ध है कि महाकोसलमें जैन-पुरातत्त्वकी कितनी व्यापकता रही है। मैंने चुने हुए अवशेषोंपर ही इस निबन्धमें विचार किया है । साहजिक परिश्रमसे जब इतनी सामग्री मिल सकी है, तब यदि अरक्षित-उपेक्षित स्थानोंकी स्वतन्त्र रूपसे खोज की जाये तो निस्सन्देह और भी बहुसंख्यक मूल्यवान् कलाकृतियाँ पृथ्वीके गर्भसे निकल सकती हैं। सच बात तो यह है कि न जैनसमाजने आज तक सामूहिक रूपसे इन अवशेषोंकी ओर ध्यान दिया न वह आज भी दे रहा है । यदि इस तरह उपेक्षित मनोवृत्तिसे अधिक कालतक काम लिया गया तो रही-सही कलात्मक सामग्रीसे भी वंचित रह जाना पड़ेगा । ऐसे सांस्कृतिक कार्योंके
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Aho! Shrutgyanam