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महाकोसलका जैन पुरातत्व
मिलती । ग्रहोंकी इस शैलीकी मूर्तियोंकी निर्माण परम्परा १३ वीं शताब्दी के बाद लुप्त सी हो गई थी, अर्थात् कलचुरिकालीन कलाकारोंने ही इस प्राचीन परम्पराको किसी सीमातक संभाल रखा था । यह मूर्ति मुझे ' स्लिमनाबादके जंगलसे प्राप्त हुई थी । एक वृक्ष के नीचे यों ही अघगड़ी पड़ी थी, जनता द्वारा पूर्णतः उपेक्षित थी ।
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'स्लीमनाबाद - कर्नल स्लीमनके नामपर बसा हुआ, यह जबलपुर से कटनी जानेवाली सड़कपर अवस्थित है । मध्यप्रदेशका काँग्रेसी शासनकी, जो सांस्कृतिक विकासकी भोर खोजकी बहुत बड़ी बातें करता हैपुरातत्त्व विषयक घनघोर उपेक्षावृत्तिका प्रतीक मैंने यहाँपर प्रत्यक्ष देखा । बड़ा ही दुःख हुआ । बात यह है कि P. W. D. के अधिकार में यहाँपर दो कब्रें हैं, जिनमें जो क्रॉस लगे हैं उनपर लेख हैं, परन्तु तथाकथित विभागके कर्मचारी प्रतिवर्ष चूना पोतते हैं । भत्ता पकानेवाले प्रान्तीय व केंद्रीय पुरातत्त्व विभाग के एक भी अफ़सरने आजतक इसपर ध्यान नहीं दिया कि आख़िर में इस कबका इतिहास क्या है ? स्लीमनाबादके एक व्यापारीको ज्ञात हुआ है कि मैं खोजके सिलसिलेमें भ्रमण कर रहा हूँ, तब उसने मेरा ध्यान इन कब्रोंकी ओर आकृष्ट किया । चूना साफ़ करवाकर देखनेसे ज्ञात हुआ कि इसपर कनाड़ी लिपिमें लेख उत्कीर्णित है। कनाड़ीका मुझे अभ्यास न होनेके कारण इस लेखकी सूचना अपने मित्र एवं गवर्नमेंट आफ इण्डिया के चीफ एपिग्राफिट डॉ० बहादुर चन्दजी छावड़ाको दी । आपने अपने आफिस सुपरिण्टेण्डेण्ट श्री एन० लक्ष्मीनारायणरावको भेजकर इसकी प्रतिलिपि करवाई । दो सैनिकोंको यहाँपर दफ़नाया गया था, उन्हींके स्मारक स्वरूप ये करें हैं । ये दोनों दक्षिण भारतीय थे । मध्यप्रदेशमें पाये जानेवाले लेखोंमें कनाड़ीका यह प्रथम लेख है । ऐसे एक दर्जन से अधिक लेख सड़कों, पुलों और सीढ़ियों में लगे हुए हैं, पर हमारी सरकारको एवं भत्ता पानेवाले अफ़सरोंको अवकाश कहाँ कि उनपर निगाह डालें ।
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Aho! Shrutgyanam