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खण्डहरोंका वैभव जैनप्रतिमाओंके मस्तक प्राप्त हुए हैं। संभव है धड़ोंको लोगोंने शिला बनानेके काममें ले लिया हो । लडैया जातिका यही व्यवसाय है । इनके पूर्वज उत्कृष्ट शिल्पकलाके निर्मापक थे। उन्होंके वंशज उन्हींकी कलाकृतियोंके ध्वंसक बने हुए हैं। समयकी गति बड़ी विचित्र होती है। __ जिन मस्तकोंकी चर्चाकी है, वे खड्गासन एवं पद्मासन दोनों प्रतिमाओंके हैं । कुछ लोग आवश्यक ज्ञानकी अपूर्णताके कारण, या मस्तकके धुंघराले बालोंके कारण तुरन्त राय दे बैठते हैं कि ये मस्तक बौद्ध प्रतिमाओंके हैं। किन्तु मैं सकारण ऐसा नहीं मानता । कारण स्पष्ट है कि उत्तर महाकोसलमें बौद्धकी अपेक्षा जैन-मूर्तियाँ ही अधिक प्राप्त हुई हैं । दक्षिण महाकोसलमें अवश्य ही बौद्ध-प्रतिमाओंकी बहुलता है । दूसरा कारण यह भी है कि कुछ धड़ भी ऐसे प्राप्त हुए हैं, जिनपर सर ठीकसे बैठ गये हैं । इन दो कारणोंके अतिरिक्त तीसरा यह भी कारण है कि बौद्ध-प्रतिमाएँ अक्सर जीवनको विशिष्टं घटनाओंसे परिपूर्ण रहती हैं। प्रभावलीका अंकन भी निश्चय करके रहता है, जब कि कुछेक जैन प्रतिमाएँ प्रभावली-विहीन पाई गई हैं । मस्तकका पिछला भाग साक्षी-स्वरूप विद्यमान है। परिकर विहीन मूर्तिके मस्तक अलगसे ही पहचाने जाते हैं, उनका पिछला भाग चपटा रहता है । सपरिकरका अव्यवस्थित ।
महाकोसलके जैन-पुरातत्वका सामान्य परिचय ऊपरकी पंक्तियोंमें मिल जाता है । मैंने ऊपर सूचित किया है कि अभीतक इस प्रान्तमें समुचित रूपसे अनुशीलन हुआ ही नहीं है । अभी तो सैकड़ों खंडहर ऐसे-ऐसे पड़े हैं, जिनमें सुन्दर-से-सुन्दर कलापूर्ण जैनपुरातत्त्वकी प्रचुर सामग्री बिखरी पड़ी है, दुर्भाग्यसे न केन्द्रीय पुरातत्व विभागको इसकी चिन्ता है, न प्रान्तीय
'विन्ध्यप्रदेशमें जिन-मूर्तियोंके धड़ ही अधिक संख्यामें मिलते हैं, कारण कि मस्तककी कुंडियाँ बना दी जाती हैं, और कहीं-कहीं शिवलिंगके स्थानमें, उल्टे स्थापित कर डाले जाते ।
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