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महाकोसलका जैन-पुरातत्व इसके ऊपर अगले पाँवोंके आसरे एक हाथीकी प्रतिमा खुदी हुई है । तदुपरि एक सुकुमार बालक बना हुआ है । ध्यान देनेकी बात यह है कि ओठोंकी रचना कलाकारोंने कुछ ऐसे कौशलसे की है कि बालक, पुरुष और स्त्रीकी विभिन्नता उनसे सहज ही स्पष्ट हो जाती है। इस बालककी ओष्ठ रचनामें भी वही बात है । बालकके पीछे कुछ बेल-बूटे उत्कीर्णित हैं । बालकके ऊपर व्यालकी मूर्ति बनी है जो बहुत बारीकीसे गढ़ी जान पड़ती है क्योंकि उसके दाँततक गिने जा सकते हैं। प्रधान प्रतिमाके दूसरी ओर भी यही खुदाव है।
.. प्रभावली सामान्य है । दोनों ओर मंगल मुख खुदे हुए हैं। उनके हाथोंमें माला है जो पहननेकी तैयारीके प्रतीक स्वरूप है । मस्तकके ऊपर तीन छत्र एवं तदुपरि मृदंग बजाता हुआ एक यक्ष है। दोनों ओर हाथी खड़े हैं । सबसे ऊपर दो पत्तियाँ निकली हुई हैं जो अशोक वृक्षकी होनी चाहिए । इस प्रकार अष्टप्रतिहारी-युक्त प्रस्तुत प्रतिमा १२ वीं शतीको होनी चाहिए । पत्थर भूरेपनको लिये हुए हैं।
. . यह मूर्ति मुझे बिलहरीकी एक सर्वथा खंडित व अरक्षित वापिकासे प्राप्त हुई थी। वापिकाके भीतरके चारों आलोंमें चार जिन मूर्तियाँ थीं इनमेंसे एक तो शायद स्व० रा० ब० डॉ० हीरालालजी कटनीवाले ले आये थे, उनके निवासस्थानके, बगीचेमें पड़ी हुई है।
तोरणद्वार .
. ... ___ स्पष्टतः यह किसी जैनमन्दिरका तोरणद्वार है.। इसकी लम्बाई ऊँचाई ३०"४२४' है । तोरण ११” गहरा है । यह तोरण एक पूर्ण मन्दिरकी आकृति ही है। जो अवशेष प्राप्त है, वह पूर्ण आकृतिका तीन चौथाई अंश है, जिसमें केन्द्र भाग साबित आ गया है । इसके केन्द्र भागमें पद्मासनस्थ जिनमूर्ति उत्कीर्णित है । जिनके उभय ओर दो पार्श्वद चँवर एवं पुष्प लिये खड़े हैं, तदुपरि पुष्प मालाएँ लिये दो नागकन्याएँ गगनविहार कर रही हैं।
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