________________
महाकोसलका जैन- पुरातत्त्व
अनुरूप दो दीपक गढ़े गये हैं। मगध और महाकोसलके पारस्परिक कलात्मक आदान-प्रदानकी परम्परा सष्टतः इन दीपकों में झलकती है ।
२०७
प्रश्न है कि प्रस्तुत तोरणका निर्माण-काल क्या हो सकता है ? तद्विषयक किसी स्पष्ट सूचना, अथवा लेखके अभावमें यह निश्चित संदिग्ध ही रहेगा । हाँ, मूर्तिका प्रस्तर एवं मूर्तियों के उभय पार्श्वदों में जो स्तम्भ बने हैं, वे कुछ सूचनाएँ देते हैं । बेलोंके डिज़ाइन भी कुछ संकेत करते हैं । ऐसे स्तम्भ बुन्देलखण्ड के अन्य कतिपय मन्दिरोंमें पाये गये हैं । इन मन्दिरोंकी और उनके स्तम्भकी रचना १२ वीं अथवा १३ वीं शतीकी मानी जाती है । अतः बहुत सम्भव है कि यह तोरण भी उसी युगकी रचना हो । इस प्रकारका प्रस्तर भी १२ वीं और १३ वीं शतीमें ही व्यवहृत होने लगा था । यद्यपि बिलहरीके तोरणको देखकर कल्पना तो इसी पत्थरकी हो सकती है, परन्तु उसमें और इसमें सबसे बड़ा बाह्य वैषम्य यही पड़ता है कि बिलहरीवाला पत्थर घिसनेमें कोमल और क्षरगशील है जब कि यह कठोर और Brittle कड़कीला । तोरणका यह अंश मुझे त्रिपुरीकी एक वृद्धाने भेंट स्वरूप दिया था, इनके पास और भी कलाकृतियाँ सुरक्षित हैं, खासकर नवग्रहों की मूर्ति तो अतीव सुन्दर कृति है ।
जैन-तोरण
सापेक्षतः यह जैन-तोरण-द्वार अधिक कलात्मक एवं सम्पूर्ण है । पूरा तोरण ५५" ×११” विस्तृत है । सब मिलाकर ६ मूर्तियाँ हैं जिनमें ३ जैन तोर्थङ्करोंकी हैं। मध्यम भागमें पद्मासनस्थ जिन एवं एक गवाक्षके अन्तरपर दोनों ओर खड्गासनस्थ दो दूसरे तीर्थङ्कर हैं । इसके अतिरिक्त ५ शासन देवी और एक यक्ष भी उत्कीर्णित है । मध्य-स्थित प्रभावलीयुक्त जिन-मूर्ति के दोनों ओर भक्त आराधना में अनुरक्त बताये गये हैं । दाय ओरके समीपतम भागमें चतुर्भुजी देवी हैं। इनके दो हाथोंमें सदण्ड कमल हैं जो क्रमशः दायें बायें हैं। तीसरा हाथ जो दायाँ है, आशीर्वाद मुद्रा में
Aho ! Shrutgyanam
"