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खण्डहरोंका वैभव
है जो ' हनुमानताल- स्थित जैनमन्दिर में सुरक्षित है। शिल्पकी दृष्टि से इसका परिकर इतना सुन्दर एवं भावपूर्ण बन पड़ा है कि इस कोटिका एक भी दूसरा परिकर महाकोसल में दृष्टिगोचर नहीं हुआ । कलाकारकी सूक्ष्म भावना, उदात्त विचार गांभीर्य एवं बारीक छैनीका आभास उसके एक-एक
में परिलक्षित होता है । यह परिकर अन्य मूर्तियोंके उपकरण से कुछ भिन्न जान पड़ता है । जैनप्रतिमाओंके विभिन्न परिकर एवं उपकरणोंका सूक्ष्म अध्ययन करनेसे ज्ञात होता है कि उनके निर्माता शिल्पियोंने अजैन तत्त्वों का भी प्रवेश करा दिया है। यानी अप्रातिहार्य, यक्ष-यक्षिणी एवं उपासक दम्पति तथा ग्रहोंको छोड़कर अन्य भाव अजैन मूर्तिकला में विकसित परिकरों के समान मिलते हैं । इसे प्रान्तीय प्रभाव भी कहना चाहिए ।
परिकरहीन पद्मासनस्थ प्रतिमाएँ भी प्रचुर परिमाण में उपलब्ध हुई हैं। जिनमें से कुछेक तो निस्सन्देह कला एवं अंगोपांगों की क्रमिक रचनाका उत्तम प्रतीक हैं । एक प्रतिमा ऐसी भी प्राप्त हुई है, जिसका परिकर केवल नवग्रहोंसे ही बना है । चित्र प्रबन्धमें दिया जा रहा है ।
खड्गासनकी परिकरयुक्त प्रतिमाओं में कलाकी दृष्टिसे सर्वोत्कृष्ट मूर्ति जो मुझे जँची उसका चित्र एवं विवरण प्रस्तुत निबन्धमें दिया जा रहा है । आरंगके वर्णित मन्दिर में वैविध्य की दृष्टिसे एक परिकरयुक्त त्रिमूर्त्ति विराजमान है । उसे देखनेसे ऐसा लगता है कि कलाकार के हाथ अवश्य सुदृढ़ रहे होंगे, पर मानस दुर्बल था । भोंडी रेखाएँ टेढ़ी-मेढ़ी आकृतियोंकी वहाँ भरमार है | किसी शैलीसे आंशिक मिलता-जुलता एक त्रिमूर्तिपट्ट मुझे बिलहरी से प्राप्त हुआ है । बड़े परितापके साथ लिखना पड़ रहा है कि इसे एक ब्राह्मणने अपने गृहके आगे सीढ़ीमें लगा रखा था । परिकर विहीन खड्गासन मूर्तियाँ स्वतन्त्र एवं मन्दिर के स्तम्भों में पाई जाती हैं ।
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'यह मूर्ति त्रिपुरीसे ही लायी गयी है । कलाको दृष्टिसे यह कलचुरि कलाका अभिमान है ।
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